Sunday, July 31, 2022
31/7/2022 Panchang
Thursday, July 28, 2022
29/7/2022 Panchang
29/7/2022 Guru dakshina visheshanka RSS
महर्षि वेदव्यास जी
भगवे नूँ प्रणाम करो
भगवे नूँ प्रणाम करो, ध्वज भगवे नूँ प्रणाम करो।
हिन्दु जाति दे ध्वज महान, इस भगवे नूँ प्रणाम करो॥
आदि युग तों हिन्दु जाति दा, महान एही निशान रिहा।
तेज त्याग साहस सरूप, झंडे दा हुँदा मान रिहा।
देश-धरम दा है प्रतीक, इसदी सेवा निष्काम करो॥
भगवे नूँ प्रणाम करो, ध्वज भगवे नूँ प्रणाम करो।
झंडा शेर जवानां दा, रणमर्दां दा विद्वानां दा।
सदा जित्त के औंदे रहे, ओहनां विजयी वीर बलवानां दा।
जिसदे दर्शन तों जित्त हुंदी, उसदा उच्चा नाम करो॥
भगवे नूँ प्रणाम करो, ध्वज भगवे नूँ प्रणाम करो।
इस ध्वजा नूँ हत्थ लै के, असीं दसां दिशां विच जावांगे।
वैरी दी अलख मुका के एहनूँ, दूर-दूर फहरावांगे।
हिन्दू दी जय, भारत दी जय, भगवे दा जयगान करो॥
भगवे नूँ प्रणाम करो, ध्वज भगवे नूँ प्रणाम करो।
हिन्दु जाति दे ध्वज महान, इस भगवे नूँ प्रणाम करो॥
भगवे नूँ प्रणाम....
हमको प्राणों से प्यारा
हमको प्राणों से प्यारा , यह भगवा ध्वज है हमारा ।
जीवन का एक सहारा , यह भगवा ध्वज है हमारा ।।
शिवराज ने इसको लेकर, प्रताप ने जीवन देकर,
यवनों का ताज उतारा, यह भगवा ध्वज है हमारा ।।
हमको प्राणों से .......
नलवा ने इसे लिया था, और खैबर पार किया था,
कांपा था काबुल सारा, यह भगवा ध्वज है हमारा ॥
हमको प्राणों से .......
हे हिन्दू वीरों प्यारों, सब एक साथ ललकारो –
यह हिन्दू राष्ट्र हमारा, यह भगवा ध्वज है हमारा ।।
हमको प्राणों से .......
भारतमाता तेरा आँचल
भारतमाता तेरा आँचल, हरा-भरा धानी-धानी
मीठा-मीठा छम-छम करता, तेरी नदियों का पानी॥
मस्त हवा जब लहराती है, दूर-दूर तक पहुंचाती है
जग को मीत बनाने वाली, मधुर-मधुर तेरी वाणी॥
भारतमाता तेरा आँचल....
द्वार खड़े हैं चाहने वाले, तेरे घर के हैं रखवाले
ऊंचे-ऊंचे तेरे पर्वत, वीर बहादुर सेनानी॥
भारतमाता तेरा आँचल....
जीवन पुष्प चढ़ा चरणों में, मांगें मातृभूमि से यह वर
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें॥
भारतमाता तेरा आँचल....
एकल गीत
मन समर्पित तन समर्पित
मन समर्पित तन समर्पित, और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ॥ मन समर्पित ....
माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन
किन्तु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊं सजाकर भाल जब
स्वीकार कर लेना दया कर यह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित, रक्त का कण-कण समर्पित ॥1॥ चाहता हूँ ....
माँज दो तलवार को, लाओ न देरी
बाँध दो कसकर कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित, आयु का क्षण-क्षण समर्पित ॥2॥ चाहता हूँ ....
तोड़ता हूँ मोह का बन्धन क्षमा दो
गाँव मेरे द्वार घर आँगन क्षमा दो
आज सीधे हाथ में तलवार दे दो ...2
और बाएँ हाथ में ध्वज को थमा दो
ये सुमन लो, ये चमन लो, नीड़ का तृण-तृण समर्पित ॥3॥ चाहता हूँ ....
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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु:, गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म:, तस्मै श्री गुरुवे नमः॥
भावार्थ - गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं और गुरु ही भगवान शंकर हैं। गुरु ही साक्षात् परब्रहम हैं। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
गुरु गोबिन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय ।
बलिहारी गुरु आपने, गोबिन्द दियो बताय॥
(सन्त कबीरदास जी)
अर्थ – गुरु और गोबिन्द (भगवान) एक साथ खड़े हों, तो पहले किन्हें प्रणाम् करना चाहिए। ऐसी स्थिति में गुरु के श्रीचरणों में शीश झुकाना उत्तम है, जिनके कृपा रूपी प्रसाद से गोबिन्द के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
सब धरती कागद करूँ, लेखनि सब बन राय।
सात समुंद की मसि करूँ, गुरु गुन लिखा न जाय॥
भावार्थ – पूरी धरती के बराबर कागज बना लें, वन में उपलब्ध सभी वृक्षों की लकड़ी को एकत्रित करके उसकी लेखनी (कलम) बना लें, सातों समुद्रों के पानी को स्याही बना लें, तो भी गुरु के गुणों को लिखने के लिए वे कम पड़ेंगे। अर्थात् की महिमा अपरंपार है।
गुरु कुम्हार शिष कुम्भ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़े खोट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहै चोट॥
भावार्थ – गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है। गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का अनगढ़ टुकड़ा ही होता है। जैसे कुम्हार घड़ा बनाते समय बाहर से तो चोट मारता है और अंदर से हलके हाथ से उसे सहारा भी देता है, कि कहीं घड़ा टूट न जाए, इसी भांति गुरु भी उसके अवगुण तो दूर करते हैं, उसके अवगुणों पर चोट करते हैं, लेकिन अंदर से उसे सहारा भी देते हैं, जिससे कहीं वह टूट न जाए।
देनहार कोऊ और है, सो भेजत दिन रैन।
लोग भरम मेरो करें, तासों नीचे नैन॥
भावार्थ – कवि रहीम कहते है, कि देने वाला कोई और है, वो दिन-रात दे रहा है। लोगों का ये झूठा भ्रम है, कि मैं दे रहा हूँ। इसीलिए मेरे नेत्र नीचे हैं।
परम पूजनीय डा० हेडगेवार जी ने कहा -
“संघ को नया झण्डा खड़ा नहीं करना है। भगवाध्वज का निर्माण संघ ने नहीं किया है। संघ ने उसी परम पवित्र भगवाध्वज को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में स्वीकार किया है, जो हजारों वर्षों से धर्म का ध्वज था। भगवाधवज के पीछे इतिहास है, परम्परा है, वह हिन्दू संस्कृति का द्योतक है। इसे हमने पूज्य गुरु के रूप में स्वीकार किया है।“
परम पूजनीय श्री गुरुजी ने कहा –
“भगवाध्वज अनादिकाल से हमारे धर्म, संस्कृति, परम्पराओं और आदर्शों का प्रतीक रहा है। यह यज्ञ की पवित्र अग्नि के रंग को, जो आदर्शवाद की अग्निशिखा में आत्मबलिदान करने का संदेश देती है तथा विश्व में सभी ओर अन्धकार दूर कर प्रकाश फैलाने वाले उदयोन्मुख तेजस्वी सूर्य के नारंगी रंग को अपने में मूर्तिमान करता है।“
परम पूजनीय श्री गुरु जी ने कहा है –
“अखण्ड श्रद्धा और दृढ़ संकल्प, यही जिनकी एकमात्र शक्ति होती है, ऐसे सामान्य मनुष्यों से ही देश के महान कार्य हुए हैं।“
महर्षि अरविन्द जी ने कहा -
“ भगवान् को अर्पण करने का अर्थ है, अपनी सब शक्तियाँ किसी ईश्वरीय कार्य के लिए लगा देना। अपने शरीर, मन, बुद्धि का उपयोग अच्छे कामों के लिए, देश-धर्म के कार्यों के लिए तथा परमेश्वर की प्राप्ति के लिए करना... ।“
पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी ने कहा –
“जहां समर्पण वृत्ति होती है, वहाँ अन्तःकरण शुद्ध होता है। समर्पण जितना बढ़ता है – जीवन में सौम्यता, सरलता, शुद्धता, निर्मलता, परमात्मा की कृपा से आती ही चली जाती है।“
* भारत में श्रीगुरुदक्षिणा की परंपरा अति प्राचीन है ।
वर्ष में एक बार श्री गुरुचरणों में गुप्त रूप से कुछ धन अर्पित करने की परंपरा ।
संघ में परम पवित्र भगवा ध्वज को गुरु माना गया है।
मनुष्य जीवन में गुरु की आवश्यकता क्यों
बिना गुरु के आशीर्वाद के जीवन में आगे बढ़ना कठिन है।
विवेक जागृत करने के लिए गुरु की आवश्यकता
संस्कार देने का कार्य गुरु ही करता है।
माँ हमारी प्रथम गुरु, इसलिए कहा – ‘मातृ देवो भव’
पिताजी शिक्षा देते हैं, इसलिए कहा – ‘पितृ देवो भव’
फिर हमें आचार्य शिक्षा देते हैं, इसलिए कहा – ‘आचार्य देवो भव’
गुरु कौन
गुरु दो शब्दों का समुच्चय है :
गु यानि अंधकार
रू यानि मिटाने वाला
हमारे जीवन से अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर ज्ञान द्वारा विवेक जागृत करने वाला ही गुरु है।
जिससे जीवन में सीखने को मिले वह गुरु है।
कहते हैं भगवान दत्तात्रेय के 24 गुरु थे।
गुरु वही जो हमारा सच्चा पथ-प्रदर्शक, हमारे उद्देश्य व आदर्श की साक्षात् मूर्ति हो।
हमारे कार्य का साकार रूप हो।
परम पवित्र भगवा ध्वज हमारा गुरु
परम पवित्र भगवा ध्वज को हमने गुरु के रूप में स्वीकार किया, व्यक्ति को क्यों नहीं ?
क्योंकि हमारे ऋषियों ने गुरु के गुणों की विस्तार से व्याख्या की, परन्तु किसी एक व्यक्ति में ये सभी गुण मिल पाना कठिन है
व्यक्ति स्खलनशील (गायत्री मंत्र के निर्माता विश्वामित्र जी का उदाहरण)
व्यक्ति सब जगह उपस्थित नहीं हो सकता।
‘व्यक्ति मरणधर्मा’ : अतः व्यक्ति के जाते ही संगठन की उद्देश्य से भटकने की संभावना।
हमें व्यक्तिनिष्ठ नहीं तत्वनिष्ठ समाज रचना करनी है।
परम पवित्र भगवा ध्वज की विशेषता
ऐतिहासिक -
भगवद् ध्वज यानि भगवान का ध्वज, यह हमारी अनादि काल की परंपरा का वाहक।
उसी की छत्रछाया में भारत जगद्गुरु बना।
यह स्वर्ण गैरिक (स्वर्ण- ऐश्वर्य, गैरिक-त्याग) ध्वज हमारे ऐश्वर्य व त्याग का प्रतीक है।
भारत की बलिदानी परंपरा एवं शौर्य का प्रतीक।
यज्ञ हमारी सांस्कृतिक जीवनधारा।
यज्ञ यानि व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि जीवन को परिपुष्ट करने का प्रयास।
(“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम")
यज्ञ यानि सद्गुण रूपी अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट व अहितकारी बातों का होम करना।
यज्ञ यानि श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय एवं तपस्यामय जीवन व्यतीत करना। यज्ञ के अधिष्ठात्री देवता अग्नि हैं। अग्नि की ज्वालाओं का प्रतिरूप हमारा परम पवित्र भगवा ध्वज।
सांस्कृतिक -
हम ज्ञान के उपासक, अज्ञान के नहीं। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी सांस्कृतिक विशेषता। अज्ञान का प्रतीक अंधकार - ज्ञान का प्रतीक सूर्य। सूर्यनारायण के रथ पर लहराने वाला हमारा परम पवित्र भगवा ध्वज।
धार्मिक -
हिन्दू संस्कृति का प्रतीक। हिन्दुत्व का प्रतीक। मठ - मंदिर - यज्ञशाला पर यही ध्वज फहराता है।
साधु - संतों, सन्यासियों, योद्धाओं का बाना है। अर्थात् त्याग व सर्वस्व अर्पण का प्रतीक है।
जीवन में समभाव का प्रतीक है । (उगते व अस्त होते सूर्य का रंग एक जैसा होता है)
समर्पण क्यों
संगठन आत्मनिर्भर बनता है। किसी पर आश्रित नहीं। (महामना मालवीय जी एवं महात्मा गांधी जी का उदाहरण)
अपनत्व भाव का जागरण होता है। हम चला रहे हैं, यह अनुभूति रहती है।
आत्मनिर्भर एवं ध्येय समर्पित होने के कारण किसी भी परिस्थिति में डिगता नहीं है।
जहां समर्पण की आवृत्ति है, वहां अंतःकरण शुद्ध होता है। समर्पण जितना बढ़ता है, जीवन में सौम्यता, सरलता, शुद्धता व निर्मलता भगवान की कृपा से आती ही चली जाती है।
समर्पण कैसे
सच्ची भावना से अधिकाधिक समर्पण करना हमारा कर्तव्य।
हम कितना देते हैं, इस बात से अधिक महत्व की बात है, कि हम कितने प्रयास और किस भावना से देते हैं।
धन से सेवा करने पर, धन में रहने वाली ममता कम होती है। तन से सेवा करने पर देहाभिमान कम होता चला जाता है। मन से सेवा करने पर थकान अनुभव नहीं होती है।
कार्य की आवश्यकता अनुसार अधिक से अधिक समर्पण करना चाहिए। जिस प्रकार संघ कार्य के लिए हम प्रतिदिन समय देते हैं, उसी प्रकार दैनिक समर्पण से हम अधिक समर्पण (गुरुदक्षिणा) कर सकते हैं।
सबसे बड़ा समर्पण है – समय का समर्पण। इसपर ध्यान केन्द्रित करके हम संघ कार्य में जितना समय लगाते है, उसमें शनै: शनै: वृद्धि करना, यह सबसे बड़ा समर्पण है।
धन्य ! धन्य !! हे पन्ना धाय !!!
मेवाड़ के राजा न रहे, तो उदयसिंह को सिंहासनारूढ़ किया गया, जो अभी पालने में झूलने वाली उम्र का था। बनवीर को संरक्षक नियुक्त किया गया।
बनवीर ने सोचा, क्यों न उस बालक को मारकर गद्दी हथिया ली जाए। सत्ता का नशा पूरे उभार पर था। रात्रि के समय नंगी तलवार लेकर बनवीर वहाँ पहुँचा। पन्ना धाय उसे दूध पिला रही थी। बगल में उसका अपना बच्चा भी सोया हुआ था।
धाय को झकझोरते हुए बनवीर ने पूछा – ‘बताओ इनमें से उदयसिंह कौन सा है ?’ एक जैसे कपड़े पहने होने के कारण वह पहचान नहीं पा रहा था। पन्ना को वस्तुस्थिति समझते देर न लगी। धर्म संकट खड़ा था उसके सामने। प्यार को महत्व दे या कर्तव्य को ? सही बताने पर अधिक उपयोगी बच्चा जाता था और कर्तव्यच्युति होती थी। गलत बताने पर अपना बच्चा हाथ से जाता था।
असमंजस कुछ ही क्षण रहा। कर्तव्य निर्धारित करते देर नहीं लगी। उसने अपने बच्चे की ओर उंगली से इशारा किया। तलवार चली और बच्चे के दो टुकड़े हो गए।
पन्ना का प्राण चीत्कार कर उठा, पर रोने से भेद खुल जाता। बेचारी खून के आँसू पीकर रह गई। काम समाप्त हुआ। राजकुमार धाय का बच्चा बना रहा और उसी प्रकार पलता रहा। किसी को कानों-कान खबर तक न पड़ी।
समय बीता। वस्तुस्थिति प्रकट हुई और उदयसिंह को गद्दी पर बैठाया गया। गद्दी पर बैठते समय उदयसिंह ने धाय के चरण चूमे और कहा – ‘माँ, राजपूतों की बलिदान-शृंखला में तुम सदैव मूर्धन्य गिनी जाती रहोगी।‘
राष्ट्रधर्म सर्वोपरि
राजस्थान के पर्वतीय क्षेत्र माउंट आबू में दिलवाड़ा जैन मन्दिर का निर्माण कार्य चल रहा था। सारा कार्य सुन्दर संगमरमर के पत्थरों से और सुप्रसिद्ध कारीगरों द्वारा करवाया जा रहा था। उस मन्दिर के निर्माण में धन की व्यवस्था कर रहे थे – वहाँ के प्रसिद्ध सेठ भामाशाह।
मन्दिर का तीन चौथाई (3/4th) कार्य पूर्ण हो चुका था। केवल एक चौथाई निर्माण कार्य शेष रह गया था। इस बीच भामाशाह को पता लगा, कि हमारे मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप, जिन्होंने मेवाड़ को पूर्ण रूप से मुगल आक्रांताओं से मुक्त कराने का संकल्प लिया हुआ था, वह पूरे परिवार के साथ जंगलों में रहकर अपनी सेना को संगठित करने का कार्य कर रहे हैं, वह निराश हो चुके हैं, क्योंकि सेना के लिए वेतन और भोजन, दोनों की व्यवस्था के लिए अब उनके पास धन नहीं बचा था। वह मन में विचार करने लगे थे, कि इससे तो अच्छा है, कि अकबर से सन्धि कर ली जाए। इसका पता लगते ही भामाशाह अपनी सारी सम्पत्ति घोड़ों पर लादकर महाराणा प्रताप की सहायता के लिए निकल पड़ा। जंगल में महाराणा प्रताप के पास पहुँचकर उन्होंने राणा जी को साष्टांग दण्डवत किया और सारी सम्पत्ति उनके चरणों में समर्पित कर दी और आग्रह किया, कि वह अकबर से सन्धि करने का विचार अपने मन से बिल्कुल त्याग दें। उन्हें सेना के संगठन के लिए धन की कोई कमी नहीं होने देंगे। इस प्रकार भामाशाह ने यह सिद्ध करके दिखाया, कि राष्ट्रधर्म सर्वोपरि है।
दिलवाड़ा जैन मन्दिर का निर्माण करने वाले कारीगरों को जब यह पता लगा, कि हमारे अन्नदाता भामाशाह जी ने अपनी सारी सम्पत्ति महाराणा प्रताप जी को समर्पित कर दी है, तो उन सबने मिलकर विचार किया, कि भामाशाह ने राष्ट्रकार्य के लिए जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, हमें उससे प्रेरणा लेनी चाहिए। उन सबने तय किया, कि मन्दिर का एक चौथाई काम जो बच गया है, उसके लिए वे कोई मजदूरी नहीं लेंगे। जो सामान बचा हुआ था – पत्थर, ईंट, बजरी आदि, उसी का प्रयोग करके उन सबने मिलकर शेष काम पूरा कर दिया। इस प्रकार उन मजदूरों ने भी अपने राष्ट्र प्रेम के कर्तव्य का अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया।
आज एक भव्य मन्दिर – दिलवाड़ा जैन मन्दिर आबू पर्वत पर उन कुशल कारीगरों की कलाकृति को प्रस्तुत कर रहा है। मन्दिर के तीन भाग उस कलाकृति के अनुपम उदाहरण है। चौथा भाग उन कारीगरों की कुशलता और कर्तव्यनिष्ठा का जीता जागता प्रमाण है, जिसकी आकृति उन तीन हिस्सों जैसी ही है, परन्तु संगमरमर के छोटे-छोटे टुकड़ों (spares) की सहायता से बना हुआ वह हिस्सा उन कारीगरों की कुशलता और निष्ठा की कहानी स्वयं सुना देता है।
गुरुदक्षिणा
महर्षि संदीपनी जी के आश्रम में श्री कृष्ण जी और बलराम जी की शिक्षा पूर्ण हुई। कृष्ण और बलराम ने गुरु संदीपनी जी के समक्ष जाकर साष्टांग प्रणाम किया और आग्रह किया - “गुरुदेव, गुरु अपने शिष्यों को जो विद्या का दान देता है, शिष्य उसका ऋण कई जन्मों में भी नहीं चुका सकता। फिर भी लोक मर्यादा के अनुसार जाते हुए गुरुदक्षिणा देना शिष्य का धर्म है। इसलिए हम आपसे प्रार्थना करने आए हैं, कि आप जो भी उचित समझें, उसके अनुसार आप हमें गुरुदक्षिणा देने का आदेश करें। हम वचन देते हैं, कि हम उस आदेश का अवश्य पालन करेंगे।“ गुरु संदीपनी बोले - “कृष्ण, तुमने हमसे यह पूछकर अपने शिष्य धर्म का ठीक ही पालन किया है। परन्तु मेरा ऐसा मत है, कि जो गुरु किसी दक्षिणा के लालच में विद्या प्रदान करता है, वास्तव में वो गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं है। वह तो एक निम्न कोटि का व्यापारी है। ऐसे गुरु की शिक्षा में ब्रह्मज्ञान का तेज कैसे हो सकता है ? फिर भी तुम्हें आचार्य ऋण के भार से मुक्त करने के लिए मैं तुमसे गुरुदक्षिणा के रूप में एक वचन मांगता हूँ। “आज्ञा गुरुदेव !” मुझे वचन दो, जो विद्या मैंने तुम्हें सिखाई है, उसका जनकल्याण के लिए सदुपयोग करोगे और जो शक्तियाँ तुम्हें प्रदान कीं हैं, उनका उपयोग किसी को पीड़ा देने के लिए, दुख देने के लिए या किसी के साथ अन्याय करने के लिए नहीं करोगे। हाँ, बल्कि उसका उपयोग किसी दुखी या अन्याय से पीड़ित व्यक्ति की सहायता के लिए अवश्य करोगे। जहां किसी आततायी को, किसी अत्याचारी को देखोगे, उसका नाश करने के लिए इन शक्तियों का प्रयोग अवश्य करोगे। मुझे वचन दो। बस! मेरी यही गुरुदक्षिणा है। “गुरुदेव! हम वचन देते हैं, कि हम जीवन भर आपकी इस आज्ञा का पालन करेंगे।“ गुरुमाता को प्रणाम करके उनसे आग्रह किया - “गुरुमाता ! इतने दिनों आपने हमें अपनी ममता की छाया में आश्रय दिया। इतना स्नेह दिया, कि हम अपने घर को भूल गए। इस उपकार का बोझ तो इस जीवन में नहीं चुकाया जा सकता, फिर भी यदि आपकी कोई इच्छा हो, जिसे हम पूरा कर सकें, तो हम इसे अपना अहोभाग्य समझेंगे।“ गुरुमाता ने कहा - “मेरी इच्छा तुम पूरी नहीं कर सकोगे। इसलिए मत पूछो मुझसे।“ “नहीं माता ! ऐसी कोई इच्छा नहीं, जिसे हम पूरा न कर सकें। हम वचन देते हैं, कि यदि हमें अपने प्राण भी देने पड़ जाएँ, तो भी हम आपकी इच्छा अवश्य पूरी करेंगे। इसलिए कहिए, क्या इच्छा है आपकी ! नि:संकोच कहिए माता ! क्या इच्छा है आपकी ! कहिए गुरुमाता !! “क्या पूछते हो मुझसे ! मेरी इच्छा कोई पूरी नहीं कर सकता। इसलिए मत पूछो मुझसे।“ कृष्ण ने कहा – “मेरे वचन पर भरोसा रखिए माता ! मैं आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। कहिए न !” “तो सुनो, हमारा एक ही पुत्र था – पुनर्दत्त। जो जवानी में मर गया। तुम मेरे पुत्र को वापस लाकर दे सकते हो ? बोलो ! मैं जानती थी, कि तुम मेरी इच्छा पूरी नहीं कर सकोगे। इसलिए झूठा वचन क्यों देते हो ? जाओ ! मैं तुम्हें वचन से मुक्त करती हूँ। कृष्ण ने पुनः पूछा - “उसकी मृत्यु कैसे हुई थी ?” गुरुमाता बोलीं - “उसे समुद्र खा गया। हम प्रभास क्षेत्र में स्नान के लिए गए थे। हमारा पुनर्दत्त भी वहीं स्नान कर रहा था। अचानक समुद्र की एक लहर उसे खींचकर अन्दर ले गई। फिर वो वापस नहीं लौटा। बस तभी से हम दोनों पुत्रशोक की ज्वाला में चुपचाप यों ही जल रहे हैं। मेरा तो कुल ही नष्ट हो गया है।“ कृष्ण मे कहा – “परन्तु इस बात का निश्चय आपने कैसे कर लिया, कि पुनर्दत्त की मृत्यु हो गई है। आप अभी निराश न हो माता ! मुझे विश्वास है, कि आपका पुत्र अवश्य
मिलेगा। मेरा वचन कभी झूठा नहीं होगा। मैं आपके पुत्र पुनर्दत्त को वापस लाने के पश्चात् ही अपने घर वापस जाऊंगा।“
ऐसा कहकर कृष्ण और बलराम गुरु आज्ञा लेकर समुद्र देवता के पास गए। समुद्र देवता के कहने पर समुद्र के अन्दर जाकर पांचजन्य शंख में छुपे हुए राक्षस का संहार करके उसका उद्धार किया। पांचजन्य को अपना शंख बनाया। फिर यमपुरी में जीवित देह के साथ जाकर यमराज से पुनर्दत्त की जीवात्मा लेकर आए। पुनर्दत्त को पुनर्जीवित करके गुरु संदीपनी और गुरुमाता को उनका पुत्र समर्पित किया। इस प्रकार गुरुमाता को दिए गए वचन को उन्होंने पूर्ण किया।
आवश्यक सामान – 1. ध्वज, ध्वज स्तम्भ, ध्वज बैठक (स्टैंड)
ध्वज धुला व प्रैस किया हुआ हो, ध्वज पर हल्की सफेद माला लगाना।
2. चित्र - डॉक्टरजी, गुरुजी, भारतमाता, महर्षि वेदव्यास
3. चित्रवेदी हेतु मेज अथवा बिना हत्थे (हैंडल) की कुर्सी, सफेद चादर
4. पुष्पमाला – चित्रों के लिए माला, ध्वज के लिए हल्के फूलों की माला, पूजन हेतु पुष्प पर्याप्त मात्रा में
5. धूपबत्ती, माचिस
6. पूजन हेतु स्टील, पीतल या मिट्टी का कलश, पुष्प हेतु थाली
7. पूजन हेतु लिफाफे, सूची बनाने हेतु पत्रक (पत्रक पर क्रमांक व नाम लिखना व वही क्रमांक लिफाफे पर लिखना, लिफाफे पर नाम न लिखना)
8. अध्यक्ष व वक्ता हेतु कुर्सी व मेज
9. वाहन व पदवेश हेतु निश्चित स्थान व रेखांकन
10. ध्वज स्टैंड बीच में रखना, उसके आगे मेज लगाकर पुष्प की थाली और पूजन राशि रखने के लिए कलश रखना। चित्र वेदी अलग से दाईं ओर बनाना।
पूजन विधि – पहली पंक्ति के सभी स्वयंसेवकों को उतिष्ठ की आज्ञा देना, उसके बाद एक-एक स्वयंसेवक द्वारा ध्वज के समक्ष जाकर पहले ध्वज प्रणाम करना, एक कदम आगे जाना, दाएँ हाथ से ध्वज को पुष्प अर्पित करना, बाएँ हाथ में पहले से लिफाफा लिया हुआ है, उसे कलश में डालना, पुनः ध्वजप्रणाम करना, एक कदम पीछे आना, दूसरी ओर से अपनी पंक्ति में जाकर खड़े होना, उपविश मिलने पर अपने स्थान पर बैठना (पुष्प ध्वज को अर्पित करना है, चित्रों को नहीं) एक पंक्ति के सभी स्वयंसेवकों का पूजन हो जाने के बाद उस पंक्ति को उपविश देना, फिर दूसरी पंक्ति को उतिष्ठ कराना।
विशेष - 1. पूर्व तैयारी हेतु व स्वयंसेवकों की सक्रियता हेतु अलग-अलग गटों का गटश: कार्यक्रम करना, जैसे – गटश: बैठक, सहभोज आदि। स्वयंसेवकों के बीच समर्पण भाव और 365 दिन के समर्पण का विषय रखना।
2. अपनी शाखा की सूची के स्वयंसेवकों की गट-रचना बनाकर प्रत्येक स्वयंसेवक को एक सप्ताह पूर्व सूचना व कार्यक्रम से एक दिन पूर्व पुनः सूचना की योजना बनाना
3. शाखा टोली की बैठक करके कार्यक्रम में आवश्यक सामग्री की सूची बनाना और सभी स्वयंसेवकों को काम बांटना – कौन कार्यकर्ता क्या सामान लाएगा, जैसे चित्र, चादर, अगरबत्ती आदि 4. कार्यक्रम से एक दिन पूर्व व्यवस्थाओं का सारा सामान कार्यक्रम स्थल अथवा निकट के किसी स्थान पर पहुँचा दिया जाए, ताकि अगले दिन कार्यक्रम समय पर प्रारम्भ हो सके
5. कार्यक्रम के मुख्य शिक्षक, गीत, अवतरण बोलने वाले व पूजन विधि बताने वाले कार्यकर्ता पहले से ही निश्चित करना, ताकि कार्यक्रम चलते समय किसी को नाम लेकर न बुलाना पड़े व वे पहले से ही निश्चित स्थान पर बैठे हों
6. जिस समय पूजन प्रारम्भ हो, उस समय एक स्वयंसेवक द्वारा धीमे स्वर में समर्पण गीत बोलना अथवा गीत की सी.डी. चलाना उचित रहेगा
7. अध्यक्ष तय करना अनिवार्य नहीं है, परन्तु यदि निश्चित हैं तो उनका उद्बोधन (सीमित समय का) बौद्धिक से पहले करवाना
8. कार्यक्रम के पश्चात् अध्यक्ष व वक्ता के जलपान की व्यवस्था
9. कार्यक्रम के तुरन्त पश्चात् शाखा टोली के 2-3 कार्यकर्ता मिलकर पूजन राशि की सूची तैयार करें व शीघ्रातिशीघ्र व्यवस्था प्रमुख जी को जमा करवा दें 10. कार्यक्रम के पश्चात् समीक्षा बैठक अवश्य हो। किसी कारण से कार्यक्रम में
उपस्थित न हो सके स्वयंसेवकों के पूजन की किसी अन्य कार्यक्रम में व्यवस्था
श्री गुरुदक्षिणा कार्यक्रम
आचार विभाग (आज्ञाएँ)
आज्ञाएँ | कार्यकर्ता (पहले से नाम लिखना) | |
संघ दक्ष | ||
आरम् | ||
अग्रेसर | ||
अग्रेसर सम्यक् | ||
आरम् | ||
संघ सम्पत् | ||
संघ दक्ष | ||
संघ सम्यक् | ||
अग्रेसर अर्धवृत | ||
संघ आरम् | ||
संघ दक्ष | ||
ध्वजप्रणाम 1-2-3 | ||
उपविश | ||
गीत (सब स्वयंसेवक दोहराएंगे) | ||
अध्यक्ष व वक्ता का परिचय | ||
अध्यक्षीय आशीर्वचन | ||
अवतरण (अमृतवचन) | ||
एकल गीत | ||
बौद्धिक | ||
पूजन विधि बताना | ||
पूजन | ||
उतिष्ठ | ||
प्रार्थना | ||
विकिर | ||
प्रसाद वितरण (यदि व्यवस्था है तो) |
प्रार्थना
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामंगले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ॥1॥
प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्रांग भूता
इमे सादरन् त्वान् नमामो वयं ।
त्वदीयाय कार्याय बद्धा कटीयम्
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये ॥
अजय्यांच विश्वस्य देहीश शक्तिम्
सुशीलं जगद्येन नम्रम् भवेत् ।
श्रुतं चैव यत् कण्टकाकीर्ण मार्गम्
स्वयं स्वीकृतं न: सुगं कारयेत् ॥2॥
समुत्कर्ष नि:श्रेय सस्यैक मुग्रम्
परं साधनं नाम वीरव्रतम् ।
तदन्त: स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्त: प्रजागर्तु तीव्रानिशम् ॥
विजेत्री च नस् संहता कार्यशाक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् ।
परं वैभवन् नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम् ॥3॥
॥ भारतमाता की जय ॥
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