Friday, June 25, 2021

HINDU SAMRAJY Diwas हिंदू साम्राज्य दिवस

        हिन्दू विजय युग प्रवर्तक छत्रपति शिवाजी महाराज
        अपने महापुरुषों का स्मरण भारत में एक श्रेष्ठ परम्परा रही है। कथा-कहानियों से लगाकर पुस्तकों तक उनके कर्तृत्व और आदर्श जीवन का सजीव चित्रण किया गया है। यदा-कदा पर्वों के माध्यम से भी हमने उनका स्मरण करना अपना पुनीत कर्तव्य समझा है। रामनवमी में भगवान राम का, शिवरात्रि में भगवान शिव का, नवरात्रों में भगवती दुर्गा माँ का स्मरण, वसंतोत्सव में वाणी की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती की वंदना, हिन्दू साम्राज्य दिवस पर छत्रपति शिवाजी महाराज का शुभ आचरण हमारे लिए प्रेरणादायक रहा है। 
         यह कथा है – हिन्दू विजय युग प्रवर्तक छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन-प्रसंगों की, जिन्होंने देश व धर्म की रक्षा के लिए सतत संघर्ष किया। वह एक कुशल प्रशासक, महान सेनानायक, अदम्य साहस, शौर्य एवं स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति थे। 

छत्रपति शिवाजी - 
     छोटा बालक एक छोटे से सिंहासन पर बैठा है। उसके गाँव के लोग गाँव के एक पटेल को पकड़कर ले आए हैं, क्योंकि उसने एक अनाथ विधवा पर अत्याचार किया था। पटेल के हाथ-पैर बंधे हुए हैं। वास्तव में अनाथ, असहायों का संरक्षण करना ही पटेल का कर्तव्य था, परन्तु वह बड़ा दुष्ट और घमण्डी था। उसने कल्पना तक नहीं की थी, कि यह छोटा बालक उसकी जांच-पड़ताल कराने का कभी साहस करेगा। परन्तु उस बालक राजपुत्र ने पटेल को केवल पकड़ाया ही नहीं, बल्कि उसे न्याय के लिए प्रस्तुत किया। सब कुछ सुन लेने पर यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई, कि पटेल ने घोर अपराध किया था। अपने दृढ़ और कड़े स्वर में बाल राजकुमार ने निर्णय दिया, कि इसके हाथ और दोनों पैर काट दिए जाएँ। सभी सन्न रह गए। राजकुमार की न्यायप्रियता देख वे लोग केवल चकित ही नहीं हुए, बल्कि उन्हें अमित आनन्द भी हुआ। लोग आपस में चर्चा करने लगे – “देखो तो हमारा नन्हा राजकुमार कितना न्यायप्रिय है। दुष्टों का थोड़ा भी भय नहीं है। दीन-दुखियों के लिए उसके हृदय में अपार दया तथा करुणा का भाव है। उनकी सहायता करना एवं उनका संरक्षण करना उसका प्रण है। विशेष यह है, कि वह सब स्त्रियों का माता के समान आदर करता है। निश्चित ही वह बड़ा होकर वह अपनी मातृभूमि का रक्षण तो करेगा ही, अपितु धर्म का भी उद्धार करेगा। अतः हमें उसे अवश्य सहयोग देना चाहिए। वह बालक राजकुमार था – शिवाजी।  

शिवाजी का जन्म –
     इस घटना के समय शिवाजी की आयु मात्र 14 वर्ष की थी। उसके छोटे से राज्य में पुणे और आसपास के छोटे-छोटे गांवों का समावेश था। शिवाजी का जन्म सन् 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ। उनके पिताजी शाहजी भोंसले तथा माता जीजाबाई थीं। उसके पिता शाहजी बीजापुर के सुल्तान के सेनापति थे। पिता को अपने पुत्र का स्वभाव पूरी तरह से ज्ञात था। विदेशी शासक के सामने न झुकने वाले सिंह के समान अपने निर्भय पुत्र का ध्यान आते ही शाहजी आनंदित होते थे। शिवाजी की निर्भयता शाहजी के सम्मुख जिस प्रसंग के द्वारा प्रकट हुई, वह भी बड़ा मनोरंजक है। एक बार शाहजी अपने पुत्र को बीजापुर के दरबार में ले गए। उस समय शिवाजी की आयु बारह वर्ष भी नहीं थी। दरबार में जाते ही प्रथा के अनुसार शाहजी ने जमीन पर हाथ लगाकर सुल्तान को तीन बार सलाम किया। उसने अपने पुत्र को भी सुल्तान को सलाम करने के लिए कहा। परन्तु वह तन कर खड़ा हो गया, उसने अपने मस्तक को पीछे हटाया – “मैं पराए शासकों के सामने कभी नहीं झुकूँगा।“ उसके मन का निश्चय मानो उसकी तीव्र दृष्टि से प्रकट हो रहा था। सिंह जैसी विजयी चाल और शान से वह दरबार से निकल गया। बीजापुर के सुल्तान के दरबार मेँ आज तक ऐसा व्यवहार करने की हिम्मत किसी ने भी नहीं की थी। उस छोटे बच्चे का धैर्य देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए थे। अपने पुत्र के ऐसे कृत्यों के कारण शाहजी बिल्कुल क्रोधित नहीं होते थे, बल्कि मन ही मन उन्हें आनन्द होता था। दुर्दैव से स्वतन्त्र राजा बनने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हुआ था। परन्तु शाहजी अपने पुत्र को एक स्वतन्त्र राजा के रूप मेँ देखना चाहते थे। कदाचित् अपने मन मेँ प्रश्न उठेगा, कि धैर्य, शौर्य, मातृभूमि की भक्ति, धर्म के प्रति अपार निष्ठा व विश्वास आदि दिव्य गुण शिवाजी ने कैसे प्राप्त किए। इसका बहुत बड़ा श्रेय उसकी माताजी जीजाबाई को है। बाल्यकाल से जीजाबाई उसे रामायण, महाभारत तथा पुराणों मेँ वर्णित वीरों, सत्पुरुषों एवं साधु-संतों की कहानियाँ सुनातीं थीं। इन वीर कथाओं व धर्म कथाओं को सुनते-सुनते शिवाजी के मन मेँ राम, कृष्ण, भीम, अर्जुन के समान वीर बनने के विचार उठते थे। शिवाजी पर परमेश्वर की एक और भी कृपा रही। शिक्षक और मार्गदर्शक के रूप मेँ उन्हें दादाजी कोण्डदेव जैसे महापुरुष प्राप्त हुए। कर्नाटक प्रान्त मेँ किसी समय भव्य-दिव्य विजयनगर का साम्राज्य था। उसकी कथाएं जहां-तहां सुनने के लिए मिलतीं थीं। उनसे भी शिवाजी को प्रेरणा मिली। 

शिवनेरी का सौभाग्य
       केवल सोलह वर्ष की छोटी आयु मेँ शिवाजी ने एक किला जीता। उस किले का नाम था – तोरण। केसरिया रंग का पवित्र ध्वज, भगवान का भगवा झण्डा तोरण दुर्ग पर फहराने लगा। शिवाजी ने अपने सैनिकों को स्वराज्य की नींव डालने वाले उस दुर्ग को पूर्ण रूप से मजबूत बनाने की आज्ञा दी। दुर्ग मेँ जब खुदाई प्रारम्भ हुई, तब वहाँ स्वर्ण मुद्राओं से भरे घड़े निकले। कदाचित् देवी लक्ष्मी द्वारा स्वराज्य की स्थापना करने के लिए वह उपहार था। तोरण गढ़ के उपरान्त शिवाजी एक के बाद एक किले जीतने लगे। ये समाचार बीजापुर के सुल्तान के कानों मेँ पहुंचे। शिवाजी को रोकने के लिए सुल्तान ने एक कपट रचा। उसने शाहजी को कैद कर लिया। यह अफवाह फैल गई थी, कि शाहजी को बन्दीगृह मेँ तरह-तरह की यातनाएँ दी जा रहीं हैं। शिवाजी और उनकी माताजी के लिए यह समाचार बहुत व्यथित करने वाला था। उधर एक समाचार यह था, कि बीजापुर का एक सरदार फतेहखान बड़ी सेना के साथ शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए निकला है तथा बीजापुर दरबार के दूसरे सरदार फरादखान को शिवाजी के बड़े भाई सम्भाजी पर हमला करने के लिए भेजा गया है। शिवाजी को डराने, धमकाने और काबू मेँ लाने के लिए यह सब काण्ड रचा गया था। बीजापुर का सुल्तान सोच रहा था, कि ऐसा करने से शिवाजी डरकर उनकी शरण मेँ आ जाएगा, नहीं तो अपने पिता का जीवन संकट मेँ पाकर वह अवश्य समर्पण करेगा। शिवाजी बहुत चिन्तित हुए। उस कठिन अवसर पर शिवाजी की पत्नी सईबाई ने एक मंत्रणा दी। साईबाई केवल चौदह वर्ष की थी। उसने शिवाजी से कहा – “आप इस बात पर इतने चिन्तित क्यों हैं ? ऐसा कुछ कीजिए कि आपके पिताजी भी मुक्त हो जाएँ और स्वराज्य भी बना रहे। प्रथम इस शत्रु का नाश कीजिए।“ साईबाई सचमुच वीर पत्नी थी। शिवाजी ने तुरन्त निर्णय लिया। निकट का एक दुर्ग पुरन्दर - बीजापुर के सुल्तान के अधीन था। शिवाजी ने बड़ी श्रद्धा से उसके दुर्गाधिपति का हृदय जीत लिया। और अपनी एक सेना वहाँ रख दी। जब फतेहखान अपनी सेना लेकर आया, तो शिवाजी की सेना ने पुरन्दर के आश्रय से उसके साथ घमासान युद्ध किया। शिवाजी के सैनिक इतने पराक्रमी थे, कि फतेहखान मैदान छोड़कर भाग निकला। उधर सम्भाजी ने भी फरादखान को पराजित किया। इस प्रकार युद्धों मेँ तो विजय हुई, परन्तु पिता शाहजी को कैसे बचाया जाए, इसकी शिवाजी को घोर चिन्ता लगी थी। शिवाजी को एक युक्ति सूझी। उनके शस्त्रों जैसी उनकी बुद्धि भी पैनी थी। उस समय दिल्ली मेँ बादशाह शाहजहां का राज्य था। शिवाजी ने उसे पत्र लिखा- “मेरे पिताजी को बीजापुर के सुल्तान ने कारागृह मेँ डाल दिया है। उनके वहाँ से मुक्त होते ही मैं और मेरे पिताजी, हम सब लोग आपकी सेवा मेँ आने के लिए बड़े उत्सुक हैं।” बीजापुर के सुल्तान को इस बात का पता चला। सुल्तान इस बात को भली भांति जानता था, कि दिल्ली का बादशाह बीजापुर पर आक्रमण करने की ताक मेँ ही रहता है। यदि बादशाह इस समय बीजापुर पर आक्रमण करता है, तो उसकी स्थिति बहुत दयनीय हो जाएगी। अतः उसने सम्मान के साथ शाहजी को मुक्त किया। इस प्रकार पराक्रम और राजनीतिक चातुर्य, दोनों का उचित उपयोग कर शिवाजी ने स्वराज्य के बड़े संकट को मात दी।      
   जब शिवाजी 28 वर्ष के थे, तब कोंडाणा, पुरन्दर, प्रतापगढ़, राजगढ़, चाकण आदि चालीस दुर्गों पर स्वराज्य का झण्डा फहर रहा था। इस समय भारत के पश्चिमी तट पर अंग्रेज़, पुर्तगाली आदि विदेशी लोगों ने आना शुरू कर दिया था। ये विदेशी लोग किसी दिन सम्पूर्ण भारत को खतरे में डाल सकते हैं, इसकी शिवाजी को पूर्व कल्पना थी। देश को उनसे बचाने के लिए उन्होंने समुद्र किनारे पर दुर्ग बांधना प्रारम्भ किया। उन्होंने युद्धपोती जहाज बनवाए और अपनी नौसेना खड़ी की। विदेशी सत्ताओं से देश को जो खतरा था, उसे सबसे पहले शिवाजी ने आँका। उनके आक्रमणों को रोकने की उन्होंने व्यवस्था की थी। शिवाजी एक दूरद्रष्टा थे। 

शत्रुओं का काल
     सुल्तान आदिलशाह ने देखा, कि शिवाजी का स्वराज्य का स्वप्न पूर्णतय: साकार हो रहा है। वह एक के बाद एक विभिन्न दुर्गों पर अपना नियन्त्रण कर रहा है। आदिलशाह अपने आप को असहाय अनुभव करने लगा। सुल्तान की एक उपमाता थी – उलिया बेगम। एक दिन उसने स्वयं दरबार बुलाया और सब उपस्थित सैन्य अधिकारियों को शिवाजी को पकड़ने के लिए आह्वान किया। तब एक लम्बे-तगड़े, हट्टे-कट्टे सेनापति अफजल खान ने इसकी जिम्मेवारी ली। वह आदिलशाही दरबार का प्रथम श्रेणी का सेनापति था। वह जितना पराक्रमी था, उतना ही क्रूर और कपटी भी था। सुल्तान ने 25 हजार सैनिकों की एक सशक्त सेना उसके साथ भेजी। सबसे पहले अफजल खान ने माँ तुलजा भवानी का मंदिर नष्ट किया। माँ तुलजा भवानी शिवाजी की कुलस्वामिनी थीं। अफजल खान ने हथौड़ा चलाकर मूर्ति के टुकड़े कर दिए थे। इसी प्रकार उसने पंढरपुर की मूर्ति भी भ्रष्ट की। उसकी करतूतों की जानकारी शिवाजी को मिल रही थी। अफजल खान यह जानता था, कि जब तक शिवाजी अपने दुर्ग में हैं, या घने जंगल में हैं, तब तक उसको पराजित करना बहुत कठिन है। वह सोचता था, कि मंदिरों को नष्ट करने से, गौहत्या करने से और स्त्रियों को भ्रष्ट करने से वह अवश्य प्रतिशोध के लिए मैदान में निकल आएगा। तब वह शिवाजी को आसानी से पराजित कर पाएगा। परन्तु शिवाजी भी बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे। अफजल खान की योजना उनके ध्यान में आ गई। मैदान में युद्ध करने से अफजल खान की ही विजय की संभावना रहेगी, यह वे अच्छी प्रकार से जानते थे। अतः उन्होंने प्रतापगढ़ जाने का निश्चय किया। जांवली के घने जंगलों में प्रतापगढ़ नाम का यह दुर्ग उन्होंने नया-नया बनवाया था। किसी प्रकार प्रतापगढ़ में अफजल खान को लाने तथा उससे युद्ध करने की शिवाजी ने योजना बनाई। वहाँ उन्होंने स्वप्न में माँ भवानी के दर्शन किए। माँ भवानी ने उन्हें आशीर्वाद दिया – “तुम्हारी विजय होगी।“ अफजल खान की इच्छा थी, कि शिवाजी प्रतापगढ़ से उतरकर मैदान में आ जाते। इस हेतु उसने अपना एक दूत शिवाजी के पास भेजा। दूत को उसने बहुत सी सूचनाएँ गुप्त रूप से दी थीं। दूत शिवाजी के पास पहुंचा। बड़े सौम्य शब्दों में वह कहने लगा – ‘खान साहब तो आपके पिताजी के बड़े मित्र हैं। वह किसी भी प्रकार आपका अहित नहीं करेंगे। आप चलें और उनसे मिलें। इसके उत्तर में शिवाजी ने एक बड़ा स्तुतिपूर्ण पत्र लिखा और वह अपने विशेष दूत के साथ खान के पास भेजा। शिवाजी ने उस पत्र में इस प्रकार लिखा –“आप तो मुझे चाचा के समान आदरणीय हैं। आप मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा करें। उचित ये होगा, प्रतापगढ़ आकर आप मेरा उद्धार करें और मुझे बादशाह के सम्मुख ले जाएँ। शिवाजी के पत्र का नम्र एवं प्रीतियुक्त भाव देखकर खान उसके भुलावे में आ गया। शिवाजी का भेजा हुआ दूत बड़ा चतुर था। उसने खान के सामर्थ्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की और शिवाजी की भीरुता की खिल्ली उड़ाई। खान बहुत प्रसन्न हुआ। अपने दल-बल के साथ खान जावली के जंगल में पहुंचा। प्रतापगढ़ दुर्ग के ठीक नीचे ही उसने अपना डेरा डाला। ये तय हुआ था, कि अफजल खान और शिवाजी मित्र की तरह मिलें। ये भी तय हुआ था, कि शिवाजी के बहुत डर जाने के कारण शिवाजी की एकान्त में भेंट होगी और दोनों के अंगरक्षक कुछ दूरी पर खड़े रहेंगे। एक ही दिन बचा था। दूसरे दिन भेंट होने वाली थी। फिर उस रात शिवाजी के मित्रों को नींद कैसे आती। नेताजी पालकर, तानाजी, कान्होजी और शिवाजी के एकनिष्ठ सेनापति अपने दुर्ग से नीचे उतरे और जंगल में छिप गए। वे आक्रमण के लिए सिद्ध थे। उन्हें यह सूचना प्राप्त थी, कि दुर्ग से सांकेतिक तोप की गर्जना सुनते ही उन्हें शत्रु सेना पर धावा बोलना है और उनका नाश करना है। रात समाप्त हुई। सूरज निकला। नित्य की भांति स्नानादि से निवृत होकर शिवाजी ने भगवान शंकर की पूजा की। उन्होंने सिर पर शिरस्त्राण पहना तथा देह पर लौह कवच धारण किया। उनकी कमर में भवानी तलवार लटक रही थी और बाजू में बाघनख भी था। भवानी माँ का स्मरण करते हुए शिवाजी दुर्ग से उतरे और अफजल खान से मिलने चले। भेंट का स्थान पहाड़ी के मध्य में था। अफजल खान के शिविर से भेंट का स्थान दिखाई नहीं पड़ता था। अफजल खान शामियाने में आया और शिवाजी की राह देखने लगा। शिवाजी को देखते ही वह उठा। क्षण भर के लिए दोनों की नजरें मिलीं, जैसे कि दो मित्र मिलने पर एक-दूसरे को आलिंगन में कस लेते हैं, उस प्रकार मिलने के लिए खान ने अपने दोनों लम्बे भीमकाय हाथ पसारे। शिवाजी भी हाथ फैलाए आगे बढ़े। अफजल खान शिवाजी को अपनी भुजाओं में जकड़कर मारना चाहता था। उसी क्षण शिवाजी ने बाघनख से अफजल खान के पेट पर ऐसा वार किया, कि खान की आँतें बाहर निकल आईं। खान ने भी वार किया, पर शिवाजी के लौह कवच ने उनकी रक्षा की। शिवाजी ने झपटकर अपनी तलवार चलाई। एक ही वार में खान का मस्तक लुढ़ककर धरती पर गिर गया। शिवाजी ने अपनी तलवार पर उस मुंड को रखा और वह दुर्ग पर चढ़ने लगे। उसी क्षण दुर्ग पर से तोपें चलीं और आकाश भेदी गर्जना करने लगीं। उधर खान के सिपाही सोच रहे थे, कि अब तक तो खान ने शिवाजी को पकड़ ही लिया होगा। तब एकाएक शिवाजी के सैनिक उन पर फुर्ती से चीते की तरह झपट पड़े। देवी तुलजा भवानी के अपमान का अब पूरा बदला लिया गया। खान की सेना परास्त हुई। शिवाजी पूर्णतय: विजयी हुए। उन्होंने अपनी माता को उपहार भेजा - कौन सा उपहार ? वह उपहार था - अफजल खान का सिर। शिवाजी की कीर्ति देश-विदेश तक पहुंची। अफजल खान वध की खबर सुनकर सब लोग शिवाजी को सराहने लगे। किन्तु बीजापुर के सुल्तान पर दारुण दुख के काले बादल छा गए। संयमी शिवाजी को इस विजय का उन्माद नहीं चढ़ा। योजनानुसार उन्होंने आस-पास के कई आदिलशाही दुर्ग जीत लिए। बीजापुर के सुल्तान ने इस बार एक नए सेनापति को चुना और सत्तर हजार की सेना देकर उसे शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सेनापति सिद्दी जौहर ने शिवाजी पर आक्रमण किया। शिवाजी पन्हालगढ़ दुर्ग में पहुंचे। आदिलशाह की सहायता के लिए अंग्रेज़ भी अपनी तोपें लेकर पहुंचे। सिद्दी जौहर ने पन्हालगढ़ पर घेरा डाला। धीरे-धीरे घेरा कसता रहा। शिवाजी ने सोचा था, कि वर्षा काल प्रारम्भ होते ही घेरा ढीला पड़ेगा, परन्तु वैसा नहीं हुआ। आदिलशाह ने दिल्ली से भी मदद मांगी। परिणामस्वरूप इसी समय दिल्ली के बादशाह ने अपने मामा शाइस्ता खान को एक लाख फौज देकर शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस संकट काल में शिवाजी की माताजी जीजाबाई ने शासन की बागडोर सुयोग्य व सुचारू रूप से संभाली। शिवाजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि किसी प्रकार इस घेरे से बाहर निकलना होगा। परन्तु यह होगा कैसे ! सिद्दी जौहर तो बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी जिद पर अड़ा हुआ था। शिवाजी ने एक योजना बनाई। शिवाजी ने सिद्दी जौहर के पास एक दूत भेजकर यह कहलवाया - "मैं अपनी हार मानने के लिए तैयार हूँ। यदि आप कहें, तो कल मैं अपने किले आपके सुपुर्द किए देता हूँ। सुल्तान मेरे अपराधों को क्षमा करें- यही मैं चाहता हूँ।" शिवाजी ने घुटने टेक दिए हैं, यह समाचार सिद्दी जौहर के शिविर में फैलते ही पूरी रात सिद्दी जौहर के सैनिकों ने खुशियाँ मनाईं। शिवाजी का यह पत्र केवल उनको धोखा देने के लिए था, यह आशंका उन्हें कतई नहीं हुई। उस रात्रि को बादल भीषण रूप से गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी और मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ठीक उसी समय शिवाजी अपने सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ के बाहर चुपके से निकल आए और विशालगढ़ दुर्ग की ओर रवाना हो गए। घेरे के पहरेदार अपने तंबुओं में बैठे सोच रहे थे, कि शिवाजी अपनी शरण में आ गया है, ऐसा मानकर वे सब मनोरंजन में मग्न थे। उन्हें यदि थोड़ी सी भी आशंका होती, तो शिवाजी का परास्त होना अटल था। इसलिए शिवाजी के सैनिक हर पग सतर्कता से उठा रहे थे। भवानी माता की उन पर कृपा थी। शिवाजी की छोटी सी सेना ने सफलतापूर्वक घेरा पार किया। मावला सैनिकों की वह छोटी टोली अपने शिवाजी को पालकी में बिठाकर तेजी से दौड़ रही थी। तभी एकाएक बिजली चमकी और वह सम्पूर्ण क्षेत्र प्रकाशमय हो गया। सिद्दी जौहर के गुप्तचर ने उस भागती हुई सेना-टोली को देख लिया। दौड़ते-हांफते वह सिद्दी जौहर के पास पहुंचा और उसे शत्रु के निकल जाने की सूचना दी। इस समाचार को सुनते ही सिद्दी जौहर के सिर पर मानो गाज गिरी। उसने अपने जामात सिद्दी मसूद को बुलवाया और उसे बड़ी भारी घुड़सवार सेना देकर तेजी से शिवाजी का पीछा करने का आदेश दिया। शिवाजी ने देखा, कि अब इन लोगों से बचना कठिन है। तब उन्होंने एक और योजना बनाई। वह झट से दूसरी पालकी में जा बैठे। वह पालकी एकदम भिन्न मार्ग पर दौड़ने लगी। शिवाजी की सेना में शिवाजी जैसा दिखने वाला एक आदमी था। वह शिवाजी जैसे कपड़े पहनकर पालकी में बैठ गया। सिद्दी मसूद उस पालकी को और उसके साथ के सैनिकों को पकड़कर उन्हें सिद्दी जौहर के पास ले गया। परन्तु जब कैदी की पूछताछ हुई, तब पता चला कि उसका नाम शिवाजी अवश्य था, परन्तु वह प्रतापगढ़ का रहने वाला एक नाई था। यह सुनकर सब लोग भौचक्के रह गए। आगबबूला होकर सिद्दी मसूद ने फिर से पीछा किया। तब तक शिवाजी अपनी सेना के साथ पच्चीस मील दूर चले गए थे। वह गजापुर की घाटी के पास आ गए थे। विशालगढ़ अब कुछ ही मील दूर था। सिद्दी मसूद के पाँच हजार सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। शिवाजी के पास बाजीप्रभु देशपाण्डे नाम के एक पराक्रमी सरदार थे। वह भीम जैसे बलवान थे। उन्होंने प्रार्थना की - "महाराज, आप आधी सेना लेकर विशालगढ़ सुरक्षित पहुँच जाएँ। आधी सेना लेकर मैं इस घाटी में शत्रु सेना का डटकर सामना करता हूँ। उसे आगे नहीं बढ्ने दूंगा। समुद्री लहरों के समान आदिलशाही सैनिकों के दल पंक्तिबद्ध होकर आ रहे थे। उस संकरे दर्रे में बाजीप्रभु उन्हें गाजर-मूली की तरह काट रहे थे। घमासान युद्ध हुआ। बाजी का पूरा शरीर घावों से भर गया। वह खून से लथपथ हो गए। परन्तु वह तनिक भी विचलित हुए बिना वीरता से शाम तक लड़ते रहे। बाजी के अधिकांश सैनिक मारे गए। और अब तो बाजी पर शत्रु ने ऐसा घातक प्रहार किया, कि वह मृतप्राय हो गए। तभी विशालगढ़ से चली तोप से पाँच संकेत हुए, जिसका अर्थ था, कि शिवाजी विशालगढ़ दुर्ग के भीतर सकुशल पहुँच गए थे। बाजीप्रभु ने उस संकेत ध्वनि को सुना, तब वह आनन्द-विभोर हो उठे। उन्होंने तलवार फेंक दी और शांत-चित्त से इहलोक यात्रा समाप्त की। उनके मुख पर कर्तव्य-पूर्ति का संतोष था। हुतात्मा के बलिदान से वह दर्रा पवित्र हो गया। फलस्वरूप उस समय से उसे लोग 'पावन खिंड' यानि पवित्र घाटी कहने लगे। बीजापुर के सुल्तान का शिवाजी पर फिर से आक्रमण करने का हौंसला नहीं रहा, परन्तु शिवाजी के राज्य पर शाइस्ता खान के रूप में दूसरा संकट आ धमका था। उस ओर ध्यान देना आवश्यक था। उस आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए शिवाजी ने एक साहसपूर्ण योजना बनाई। वह रमजान का महीना था। शाइस्ता खान की सेना में अधिकांश अधिकारी रोजा रखते थे। वे दिनभर निराहार रहते थे। सहज ही रात में कुछ अत्यधिक भोजन करते थे और फिर बेखबर सोते थे। वह दिन औरंगजेब के वार्षिकोत्सव का था। उस रात दावतों का होना स्वाभाविक ही था। उस दिन दो हजार चुने हुए सैनिक लेकर शिवाजी राजगढ़ से नीचे उतरे। पुणे से दो मील दूर शिवाजी ने अपना पड़ाव डाला। पुणे के जिस लाल महल में शिवाजी का बचपन बीता था, उसी लाल महल में शाइस्ता खान ने अपना डेरा जमाया था। पुणे में और आसपास के विस्तीर्ण प्रदेश में शाइस्ता खान की एक लाख की विस्तृत सेना की छावनी लगी हुई थी। शिवाजी का बचपन का साथी बाबाजी एक छोटी सेना लेकर मुगल छावनी की ओर जा रहा था। उसके पीछे एक छोटा सा दल लेकर शिवाजी भी चल रहे थे। बाबाजी ने अपने दल सहित छावनी में प्रवेश किया। पहरेदारों ने जब उन्हें टोका और पूछा, तब बाबाजी बिना हिचकिचाए सहज भाव से बोले- “हम तो गश्ती फौज के सिपाही हैं। हमारा पहरा खत्म हुआ। अब हम अपने मुकाम पर जा रहे हैं।“ पहरेदारों को विश्वास हो गया। वे सब सैनिक छावनी में घुस गए। शिवाजी सीधे लालमहल के पिछले दरवाजे पर पहुंचे। वहाँ से वह रसोईघर में पहुंचे। वहाँ जो भी थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया। उसके बाद शाइस्ता खान के शयन कक्ष में पहुंचे। उधर अपने साथियों को लेकर शिवाजी भी भीतर आ गए। अब तो पूरा लालमहल दगा-दगा, शत्रु घुसा - की आवाज से गूंज उठा। शाइस्ता खान की पत्नियों ने खान को पर्दे के पीछे छिपा लिया। शिवाजी आगे बढ़े और उन्होंने अपनी तलवार चलाई। शाइस्ता खान की तीन उँगलियाँ कट गईं। खान खिड़की से कूदकर भागने लगा। अब तक मुगल सेना सजग हो गई। लालमहल के अन्दर अब पूरी तरह अफरा-तफरी मची हुई थी। सब चिल्ला रहे थे- 'मारो-काटो' । इसी भ्रमजाल का लाभ उठाते हुए शिवाजी के सैनिक भाग निकले। पूर्व नियोजित स्थान पर घोड़े तैयार खड़े थे। वे उन पर चढ़े और सकुशल सिंहगढ़ पहुंचे। इस घटना से शिवाजी के सब शत्रु घबरा गए। आज तक वे उसे केवल पहाड़ी चूहा कहते थे। अब उन्हें लगा, की शिवाजी के पास कुछ मायावी सामर्थ्य है। वह कोई असाधारण शक्ति है। पूरे समाचार को सुनते ही औरंगजेब शर्मसार हुआ। उसके फलस्वरूप उसने शाइस्ता खान की नियुक्ति बंगाल के सूबे में की। 
       स्वराज्य का निर्माण करना, सुसज्ज स्थल सेना और नौसेना रखना, राज्य में उत्तम शासन चलाना और सबसे बड़ी बात - इन क्रूर आक्रमणों का सामना करना – इन सब बातों के लिए विपुल धन की आवश्यकता थी। इतना अधिक धन प्राप्त करने का दूसरा तो कोई उपाय था नहीं। अतः आक्रमणकारियों से ही पैसा वसूल करने का शिवाजी ने निश्चय किया। उन्होंने औरंगजेब का धन-भण्डार लूटने की योजना बनाई। उन दिनों सूरत को कुबेर नगरी अर्थात् धनपतियों की नगरी कहा जाता था। शिवाजी ने वहाँ से अतुल धन-सम्पत्ति प्राप्त की। 

मुगल सम्राट के पंजों में
          अब तो औरंगजेब के लिए शिवाजी के कृत्य असहनीय हो गए। शिवाजी को समाप्त करने के लिए बड़ी भारी सेना लेकर वह स्वयं ही दक्षिण में आना चाहता था। परन्तु तथाकथित पहाड़ी चूहे के नाखून कितने तेज हैं, यह उसने देख लिया था। अतः उसने विचारपूर्वक एक योजना बनाई। सिंह को जीतने के लिए सिंह को ही भेजने का उसने निश्चय किया। इस कार्य के लिए उसने राजा जयसिंह को चुना। जयसिंह बड़ा योद्धा और वीर था। वह कुशल सेनापति भी था। वास्तव में इतनी बड़ी योग्यता का व्यक्ति विदेशियों की सेवा में ही अपने आपको धन्य मानता रहा, यह बड़ी लज्जा की बात है। विशाल सेना लेकर जयसिंह दक्षिण में आया। उसने बीजापुर के सुल्तान के साथ परस्पर सहायता की सन्धि कर ली। शिवाजी के साथ जयसिंह का युद्ध अनेक मोर्चों पर प्रारम्भ हुआ। एकाएक शिवाजी ने जयसिंह को पत्र लिख मित्र-सन्धि का प्रस्ताव भेजा, यहाँ तक कि शिवाजी स्वयं जयसिंह से मिले और उन्होंने दिल्लीपति से एकनिष्ठ रहने का उन्हें आश्वासन दिया। शिवाजी गिरि-कन्दराओं में स्वतन्त्र होकर विचरने वाले वनराज केसरी जैसे थे। वह बादशाह के सामने एकाएक क्यों झुक गए ! अनेक लोगों ने सोचा, कि शायद इसके पीछे कुछ गुप्त रहस्य है। सम्भव है, कि सेवा करने के बहाने शिवाजी दिल्ली जाएंगे और प्रत्यक्ष औरंगजेब पर आक्रमण कर उसे समाप्त करेंगे। कदाचित् उनका यह कृत्य उनके जीवन का बड़ा ही साहसपूर्ण और गूढ़ कूटनीति युक्त कार्य था। तदनुसार शिवाजी औरंगजेब से मिलने के लिए अपने राज्य से चले। उनका पुत्र सम्भाजी भी उनके साथ था। घर पर स्वराज्य में सबको बड़ी उत्कंठा थी, कि क्या होगा। मार्ग में स्थान-स्थान पर हिन्दू जनता ने उनका बड़ा स्वागत किया और उनके प्रति बड़ा आदरभाव प्रकट किया। शिवाजी आगरा पहुंचे। औरंगजेब भी कूटनीति में कम नहीं था। शिवाजी को उसने कभी निकट नहीं आने दिया। दरबार में भी उनका स्थान बहुत दूर रखा। इन सब बातों से शिवाजी की आशाओं पर पानी फिर गया। औरंगजेब ने शिवाजी का अपमान किया। शिवाजी को सम्मान के साथ रखने का औरंगजेब ने जयसिंह को वचन दिया था। वह उसने नहीं निभाया। शिवाजी बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने भी औरंगजेब का अपमान किया और वह दरबार छोड़कर चले गए। उसने शिवाजी को बन्दीगृह में ही मार देने की आज्ञा दे दी। शिवाजी ने भी अपना स्वाभाविक धैर्य नहीं खोया। बल्कि उस कठिन घड़ी में उनकी बुद्धि और हिम्मत – दोनों अधिक तेजी से काम करने लगीं। अचानक शिवाजी बीमार पड़ गए। उनका स्वास्थ्य अधिकाधिक बिगड़ने लगा। साथ में आए हुए मराठा सैनिकों को अपने प्रान्त में जाने की अनुमति देने के लिए उन्होंने औरंगजेब से प्रार्थना की। औरंगजेब को लगा कि यह तो और ठीक रहेगा। औरंगजेब ने अनुमति दे दी। स्वास्थ्य लाभ के लिए आशीर्वाद पाने के लिए शिवाजी फकीरों, साधु-संतों तथा वैरागियों के पास मिठाइयाँ भेजने लगे। नगर में अमीरों के पास शिवाजी तरह-तरह के नजराने भेजने लगे। इन सब बातों के लिए औरंगजेब की अनुमति प्राप्त थी। औरंगजेब जैसे चतुर आदमी के मन में भी शंका नहीं आई। 
        शिवाजी को मारने का दिन निश्चित था। ठीक उससे एक दिन पहले शिवाजी की बीमारी ने गम्भीर रूप धारण किया। यहाँ तक कि वह सुधबुध खो बैठे। नित्य की भांति मिठाई के पिटारे भीतर लाए गए। अब तक रुग्ण-शैया पर पड़े हुए शिवाजी एकदम उठे और पिटारे में जा बैठे। उनके पुत्र सम्भाजी को भी उसी तरह बिठाया गया। उसी क्षण नौकरों ने पिटारों पर ढक्कन चढ़ाए और उन्हें उठाकर चलने लगे। प्रतिदिन के अनुभव से पहरेदारों को विश्वास हो गया, कि पिटारों में मिठाई ही जाती है। उस दिन भी कोतवाल फौलाद खान ने कुछ पिटारों की जांच की। उनमें केवल मिठाई थी। सुदैव से जिन पिटारों में शिवाजी और सम्भाजी बैठे थे, उन पिटारों पर उसका हाथ नहीं पड़ा। माँ भवानी की कृपा, शिवाजी का चातुर्य और फौलाद खान का अहंकार, इनका ठीक मेल बैठा। भगवान् की इच्छा शिवाजी को जीवित रखने की थी। इसलिए फौलाद खान के कहा – ‘जाने दो।‘ कारागृह में शिवाजी के बिस्तर पर उनके मित्र हीरोजी ठीक उसी ढंग से सो गए। शिवाजी की शाही अंगूठी उसने अपने हाथों में पहन ली थी। उनकी पूरी देह दुशाले में ढकी हुई थी। परन्तु हाथ उसने जान-बूझकर बाहर निकाल रखा था। निष्पाप मुद्रा धारण किए हुए मदारी मेहतर नाम का लड़का उनके पैर दबा रहा था। फौलाद खान बीच-बीच में आकर झाँकता था और शिवाजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछता था। दूसरे दिन हीरोजी शाम को उस बिस्तरे से उठा और उसने उस बिस्तर पर रजाई-तकिया आदि की ठीक ऐसी रचना की, ऐसा लगता था, जैसे कि कोई आदमी सोया हुआ है। उसने अपने हमेशा के कपड़े पहने और बाहर आया। उसने पहरेदार से हाथ जोड़कर कहा- ‘आवाज कम करो, महाराज की तबीयत ज्यादा खराब है। अभी-अभी झपकी लगी है। मैं दवाई लेने जा रहा हूँ।‘ इस प्रकार हीरोजी बाहर निकल आया। कुछ समय बाद मदारी भी इसी ढंग से वहाँ से खिसका। बिस्तर पर ओढ़ने के बने हुए शिवाजी सोए हुए थे और बाहर हाथ में नंगी तलवारें लिए पहरेदार कड़ा पहरा दे रहे थे। सुबह हुई। शिवाजी के सिर कलम के लिए वही दिन निश्चित किया गया था। फौलाद खान भीतर आया। वहाँ पर विचित्र शान्ति विद्यमान थी। वह शंकित हुआ। आगे बढ़कर उसने देखा, कि शिवाजी तो सोए हुए हैं। एक क्षण के लिए वह आश्वस्त हुआ, कि वहाँ सब ठीक है। परन्तु थोड़ी ही देर में उसे ध्यान आया, कि यहाँ कोई हलचल नहीं है। शिवाजी कहीं मर न गया हो। उसने ओढ़ना हटाया और देखा कि वहाँ तो केवल रजाई और तकिया ही है। काटो तो खून नहीं, उसकी ये हालत हो गई। फौलाद खान की यह स्थिति थी। औरंगजेब की क्या स्थिति हुई होगी, इसकी कल्पना कर सकते हैं। औरंगजेब ने उसी क्षण शिवाजी को पकड़ने के लिए अपनी सेना को सब दिशाओं में भेजा। शिवाजी और सम्भाजी के लिए पूर्व नियोजित स्थान पर घोड़े तैयार थे। वे पिटारों में से निकले, घोड़े पर सवार हुए और दक्षिण की ओर चल पड़े। रास्ते में समर्थ रामदास स्वामी के मठों का उन्हें बड़ा उपयोग हुआ। अन्त में साधु-सन्यासी का वेश बनाकर शिवाजी राजगढ़ पहुंचे। क्षण भर के लिए उनकी माता जीजाबाई तब उन्हें पहचान न सकीं और जब उन्होंने पहचाना, तब उन्होंने अपने महान सुपुत्र को अपने गले लगा लिया। उनकी आँखों से आनंदाश्रु बहने लगे। माँ-बेटे का यह अलौकिक मिलन था। 
       भारत के दक्षिण में शिवाजी के जो शत्रु थे, उनके कानों तक जब शिवाजी के आगरा से मुक्त होने का समाचार पहुंचा, तब वे बहुत घबराए। पूरे देश में शिवाजी की कीर्ति फैल गई। शिवाजी ने अपने युग के सबसे बड़े कपटी व क्रूर राजनीतिज्ञ औरंगजेब की आँखों में धूल झोंकी थी। उसकी नाक के नीचे से, उसकी राजधानी में से नंगी तलवारें हाथ में लिए जहां रात-दिन पहरेदारों का कड़ा पहरा था, वहाँ से शिवाजी मुक्त हुए थे। चारों तरफ दौड़ाए हुए हजारों मुगल सैनिकों को चकमा देकर शिवाजी ने एक हजार मील का रास्ता तय किया। ऐसा साहस, आत्मविश्वास और चातुर्य कोई महामानव ही कर सकता है। सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए प्रेरणादायक हिन्दू साम्राज्य की शिवाजी ने स्थापना की। परन्तु अभी तक शास्त्रों के अनुसार उनका विधिवत सिंहासन रोहण नहीं हुआ था। इसलिए कुछ लोग उन्हें राजा मानने से इन्कार करते थे। शिवाजी के जीवन की इस त्रुटि को पूर्ण करने के लिए काशी के एक विद्वान पंडित अग्रसर हुए। उनका नाम गागाभट्ट था। उन्होंने यथाशास्त्र शिवाजी का राज्याभिषेक किया। यह महत्वपूर्ण घटना सन् 1674 में सम्पन्न हुई। उस समय शिवाजी की आयु 44 वर्ष की थी। दुर्गम एवं सर्वश्रेष्ठ रायगढ़ दुर्ग को राजधानी बनाया गया। अपनी पूजनीय माताजी के चरण स्पर्श कर तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर शिवाजी रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर आसीन हुए। गागाभट्ट ने उनपर स्वर्ण छत्र का राजचिन्ह संभाला और उन्हें छत्रपति घोषित किया। सुहागिनों ने उनकी आरती उतारी। साधु-संतों ने उन्हें आशीर्वाद दिए। इस उत्सव में भाग लेने के लिए दूर-दूर से हजारों लोग आए थे। वे आनन्द-विभोर हो उठे। मुक्त कण्ठ से वे जय-जयकार करने लगे – ‘छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जी की जय।‘ रायगढ़ दुर्ग से तोपों की सलामी हुई। बीजापुर के सुल्तान ने तथा अंग्रेजों ने शिवाजी को स्वतन्त्र राजा के रूप में मान्यता दी और कीमती नजराने भेजे। इस महान् घटना को देख समर्थ रामदास स्वामी के मन में जो आनन्द की लहरें उठने लगीं, वह काव्य रूप में प्रकट हुईं- “इस भूमि का उद्धार हुआ है। धर्म का उद्धार हुआ है। आँगन में स्वराज्य का उदय हुआ है।“
    केवल शत्रु को पराजित कर स्वराज्य की प्रस्थापना करने में शिवाजी को संतोष नहीं था। अपनी समस्त प्रजा को सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति हो, इस हेतु उन्होंने तरह-तरह के सुधार किए। अपनी प्रजा को वह देवता-स्वरूप मानते थे। उनका कोई भी कष्ट शिवाजी लिए असहनीय था। शत्रुओं को दबाने के लिए उनके सैनिकों को दूर-दूर तक जाना पड़ता था। अपने सैनिकों को शिवाजी ने जो आज्ञा दी थी, वह उनकी प्रजाहित दक्षता का परिचायक है। रास्ते में जो जनता होगी, उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना चाहिए। खेतों में जो फसल खड़ी होगी, उसके पत्ते तक भी किसी को छूने नहीं चाहिएं। इस आज्ञा का उल्लंघन करने वाले को शिवाजी हमेशा बहुत कड़ी सजा देते थे। गाँव के भोले-भाले किसानों की दृष्टि में शिवाजी प्रेम-स्वरूप थे। उस समय किसान धनी जमींदारों के अन्याय से त्रस्त थे। शिवाजी ने दुष्ट जमींदारों से जमीनें छीन लीं और किसानों को बाँट दीं। उस समय हिन्दू समाज में आज से भी अधिक छुआछूत का रोग फैला हुआ था। समाज ने कुछ अपने ही भाइयों को अछूत समझकर उन्हें अपने ही समाज से अलग कर दिया था। परन्तु शिवाजी का उन सबके प्रति अगाध प्रेम था। शिवाजी ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती करने के लिए आमंत्रित किया और उनकी योग्यतानुसार उन्हें उच्च पद तथा अधिकार भी प्रदान किए। उन सबने शिवाजी की निष्ठापूर्वक सेवा की। शिवाजी का संदेश था- "एक ही धर्म के अनुयाइयों को आपस में कभी ईर्ष्या व भेदभाव नहीं करना चाहिए। द्वेष नहीं रखना चाहिए।" उसका प्रत्यक्ष आदर्श उन्होंने स्वयं प्रस्तुत किया। अपनी प्रजा को शिवाजी उत्तम शिक्षा देना चाहते थे। संस्कृत भाषा को अपने राज्य में दिव्य स्थान देने के लिए 'संस्कृत' शब्द प्रचलित किए। उन दिनों अनेक हिन्दू जबर्दस्ती से मुसलमान बनाए जाते थे। वे फिर से हिन्दू बनना चाहते थे, किन्तु हिन्दू समाज ऐसे धर्मांतरितों को प्रवेश नहीं देता था। शिवाजी को यह ठीक नहीं लगा। अतः जो भी पूर्ववत अपने हिन्दू धर्म में आना चाहते थे, शिवाजी ने उनका पुनः शुद्धीकरण किया। अनेक लोग समुद्र-यात्रा को निषिद्ध मानते थे। इस मूर्खता को शिवाजी ने समाप्त किया। उन्होंने समुद्री युद्ध किए और कई जल-दुर्ग बनवाए। भ्रष्टाचारी और स्वदेश-द्रोही लोगों पर शिवाजी अत्यन्त क्रोधित होते थे। अपनी मातृभूमि को धोखा देने वालों का वह बड़ा तिरस्कार करते थे। स्वयं का पुत्र भी यदि देश के विरुद्ध काम करता, तो वह उसे अवश्य दण्ड देते। शिवाजी के रूप में न्याय ही साकार हुआ था। अपने सम्बन्धियों के लिए भी उन्होंने कभी पक्षपात नहीं किया। सद्गुणी व कर्तृत्ववान लोगों को वह सदा प्रोत्साहन देते थे। इसका परिणाम यह हुआ, कि उनके राज्य में गुणवानों की उन्नति हुई और वे ही उच्च पदों पर आरूढ़ हुए। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिवाजी ने आवश्यक न्यायोचित परिवर्तन किए। शिवाजी के स्वराज्य निर्माण की यह अत्यन्त रोमांचकारी अभिव्यक्ति है। इसे पढ़ते हुए हमें बार-बार ऐसा प्रतीत होता है, कि हमें शिवाजी का आदर्श सदा अपने सम्मुख रखना चाहिए। शिवाजी ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए अपार कष्ट सहे। उन्होंने कभी अपने प्राणों की परवाह नहीं की। तीन सौ वर्षों से भी अधिक समय बीत जाने पर आज भी उस महापुरुष के स्मृति मात्र से नव प्रेरणा व नव ऊर्जा जागृत होती है।   
छत्रपति शिवरायांचा
निनाद जय जयकार !   निनाद जय जयकार !
छत्रपति शिवाजी महाराज की जय !

Wednesday, June 23, 2021

हल्दी घाटी

हल्दीघाटी का अदम्य योद्धा रामशाह तंवर

18 जून. 1576 को हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप और अकबर की सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध मचा हुआ था| युद्ध जीतने को जान की बाजी लगी हुई. वीरों की तलवारों के वार से सैनिकों के कटे सिर से खून बहकर हल्दीघाटी रक्त तलैया में तब्दील हो गई| घाटी की माटी का रंग आज हल्दी नहीं लाल नजर आ रहा था| इस युद्ध में एक वृद्ध वीर अपने तीन पुत्रों व अपने निकट वंशी भाइयों के साथ हरावल (अग्रिम पंक्ति) में दुश्मन के छक्के छुड़ाता नजर आ रहा था| युद्ध में जिस तल्लीन भाव से यह योद्धा तलवार चलाते हुए दुश्मन के सिपाहियों के सिर कलम करता आगे बढ़ रहा था, उस समय उस बड़ी उम्र में भी उसकी वीरता, शौर्य और चेहरे पर उभरे भाव देखकर लग रहा था कि यह वृद्ध योद्धा शायद आज मेवाड़ का कोई कर्ज चुकाने को इस आराम करने वाली उम्र में भी भयंकर युद्ध कर रहा है| इस योद्धा को अपूर्व रण कौशल का परिचय देते हुए मुगल सेना के छक्के छुड़ाते देख अकबर के दरबारी लेखक व योद्धा बदायूंनी ने दांतों तले अंगुली दबा ली| बदायूंनी ने देखा वह योद्धा दाहिनी तरफ हाथियों की लड़ाई को बायें छोड़ते हुए मुग़ल सेना के मुख्य भाग में पहुँच गया और वहां मारकाट मचा दी| अल बदायूंनी लिखता है- “ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा मान के पोते रामशाह ने हमेशा राणा की हरावल (अग्रिम पंक्ति) में रहता था, ऐसी वीरता दिखलाई जिसका वर्णन करना लेखनी की शक्ति के बाहर है| उसके तेज हमले के कारण हरावल में वाम पार्श्व में मानसिंह के राजपूतों को भागकर दाहिने पार्श्व के सैयदों की शरण लेनी पड़ी जिससे आसफखां को भी भागना पड़ा| यदि इस समय सैयद लोग टिके नहीं रहते तो हरावल के भागे हुए सैन्य ने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी थी कि बदनामी के साथ हमारी हार हो जाती|" 

राजपूती शौर्य और बलिदान का ऐसा दृश्य अपनी आँखों से देख अकबर के एक नवरत्न दरबारी अबुल फजल ने लिखा- "ये दोनों लश्कर लड़ाई के दोस्त और जिन्दगी के दुश्मन थे, जिन्होंने जान तो सस्ती और इज्जत महंगी करदी|"

हल्दीघाटी (Haldighati Battle) के युद्ध में मुग़ल सेना के हृदय में खौफ पैदा कर तहलका मचा देने वाला यह वृद्ध वीर कोई और नहीं ग्वालियर का अंतिम तोमर राजा विक्रमादित्य का पुत्र रामशाह तंवर Ramshah Tomar था| 1526 ई. पानीपत के युद्ध में राजा विक्रमादित्य के मारे जाने के समय रामशाह तंवर Ramsa Tanwar मात्र 10 वर्ष की आयु के थे| पानीपत युद्ध के बाद पूरा परिवार खानाबदोश हो गया और इधर उधर भटकता रहा| युवा रामशाह (Ram Singh Tomar) ने अपना पेतृक़ राज्य राज्य पाने की कई कोशिशें की पर सब नाकामयाब हुई| आखिर 1558 ई. में ग्वालियर पाने का आखिरी प्रयास असफल होने के बाद रामशाह चम्बल के बीहड़ छोड़ वीरों के स्वर्ग व शरणस्थली चितौड़ की ओर चल पड़े|

मेवाड़ की वीरप्रसूता भूमि जो उस वक्त वीरों की शरणस्थली ही नहीं तीर्थस्थली भी थी पर कदम रखते ही रामशाह तंवर का मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह ने अतिथि परम्परा के अनुकूल स्वागत सत्कार किया. यही नहीं महाराणा उदयसिंह ने अपनी एक राजकुमारी का विवाह रामशाह तंवर के पुत्र शालिवाहन के साथ कर आपसी सम्बन्धों को और प्रगाढ़ता प्रदान की| कर्नल टॉड व वीर विनोद के अनुसार उन्हें मेवाड़ में जागीर भी दी गई थी| इन्हीं सम्बन्धों के चलते रामशाह तंवर मेवाड़ में रहे और वहां मिले सम्मान के बदले मेवाड़ के लिए हरदम अपना सब कुछ बलिदान देने को तत्पर रहते थे|

कर्नल टॉड ने हल्दीघाटी के युद्ध में रामशाह तोमर, उसके पुत्र व 350तोमर राजपूतों का मरना लिखा है| टॉड ने लिखा- "तंवरों ने अपने प्राणों से ऋण (मेवाड़ का) चूका दिया|" तोमरों का इतिहास में इस घटना पर लिखा है कि- "गत पचास वर्षों से हृदय में निरंतर प्रज्ज्वलित अग्नि शिखा का अंतिम प्रकाश-पुंज दिखकर, अनेक शत्रुओं के उष्ण रक्त से रक्तताल को रंजित करते हुए मेवाड़ की स्वतंत्रता की रक्षा के निमित्त धराशायी हुआ विक्रम सुत रामसिंह तोमर|" लेखक द्विवेदी लिखते है- "तोमरों ने राणाओं के प्रश्रय का मूल्य चुका दिया|" भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी व इतिहासकार सज्जन सिंह राणावत एक लेख में लिखते है- "यह तंवर वीर अपने तीन पुत्रों शालिवाहन, भवानीसिंह व प्रताप सिंह के साथ आज भी रक्त तलाई (जहाँ महाराणा व अकबर की सेना के मध्य युद्ध हुआ) में लेटा हल्दीघाटी को अमर तीर्थ बना रहा है| इनकी वीरता व कुर्बानी बेमिसाल है, इन चारों बाप-बेटों पर हजार परमवीर चक्र न्योछावर किये जाए तो भी कम है|"

तेजसिंह तरुण अपनी पुस्तक "राजस्थान के सूरमा" में लिखते है- "अपनों के लिए अपने को मरते तो प्राय: सर्वत्र सुना जाता है, लेकिन गैरों के लिए बलिदान होता देखने में कम ही आता है| रामशाह तंवर, जो राजस्थान अथवा मेवाड़ का न राजा था और न ही सामंत, लेकिन विश्व प्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में इस वीर पुरुष ने जिस कौशल का परिचय देते हुए अपना और वीर पुत्रों का बलिदान दिया वह स्वर्ण अक्षरों में लिखे जाने योग्य है|"

जाने माने क्षत्रिय चिंतक देवीसिंह, महार ने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा- "हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप यदि अनुभवी व वयोवृद्ध योद्धा रामशाह तंवर की सुझाई युद्ध नीति को पूरी तरह अमल में लेते तो हल्दीघाटी के युद्ध के निर्णय कुछ और होता| महार साहब के अनुसार रामशाह तंवर का अनुभव और महाराणा की ऊर्जा का यदि सही समन्वय होता तो आज इतिहास कुछ और होता|"

धन्य है यह भारत भूमि जहाँ रामशाह तंवर Ramshah Tanwar जिन्हें रामसिंह तोमर Ramsingh Tomar, रामसा तोमर Ramsa Tomar आदि नामों से भी जाना जाता रहा है, जैसे वीरों ने जन्म लिया और मातृभूमि के लिए उच्चकोटि के बलिदान देने का उदाहरण पेश कर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक आदर्श प्रेरक पैमाना पेश किया|




haldeeghaatee ka adamy yoddha raamashaah tanvar

18 joon. 1576 ko haldeeghaatee mein mahaaraana prataap aur akabar kee senaon ke madhy ghamaasaan yuddh macha hua tha| yuddh jeetane ko jaan kee baajee lagee huee. veeron kee talavaaron ke vaar se sainikon ke kate sir se khoon bahakar haldeeghaatee rakt talaiya mein tabdeel ho gaee| ghaatee kee maatee ka rang aaj haldee nahin laal najar aa raha tha| is yuddh mein ek vrddh veer apane teen putron va apane nikat vanshee bhaiyon ke saath haraaval (agrim pankti) mein dushman ke chhakke chhudaata najar aa raha tha| yuddh mein jis talleen bhaav se yah yoddha talavaar chalaate hue dushman ke sipaahiyon ke sir kalam karata aage badh raha tha, us samay us badee umr mein bhee usakee veerata, shaury aur chehare par ubhare bhaav dekhakar lag raha tha ki yah vrddh yoddha shaayad aaj mevaad ka koee karj chukaane ko is aaraam karane vaalee umr mein bhee bhayankar yuddh kar raha hai| is yoddha ko apoorv ran kaushal ka parichay dete hue mugal sena ke chhakke chhudaate dekh akabar ke darabaaree lekhak va yoddha badaayoonnee ne daanton tale angulee daba lee| badaayoonnee ne dekha vah yoddha daahinee taraph haathiyon kee ladaee ko baayen chhodate hue mugal sena ke mukhy bhaag mein pahunch gaya aur vahaan maarakaat macha dee| al badaayoonnee likhata hai- “gvaaliyar ke prasiddh raaja maan ke pote raamashaah ne hamesha raana kee haraaval (agrim pankti) mein rahata tha, aisee veerata dikhalaee jisaka varnan karana lekhanee kee shakti ke baahar hai| usake tej hamale ke kaaran haraaval mein vaam paarshv mein maanasinh ke raajapooton ko bhaagakar daahine paarshv ke saiyadon kee sharan lenee padee jisase aasaphakhaan ko bhee bhaagana pada| yadi is samay saiyad log tike nahin rahate to haraaval ke bhaage hue sainy ne aisee sthiti utpann kar dee thee ki badanaamee ke saath hamaaree haar ho jaatee|" 

raajapootee shaury aur balidaan ka aisa drshy apanee aankhon se dekh akabar ke ek navaratn darabaaree abul phajal ne likha- "ye donon lashkar ladaee ke dost aur jindagee ke dushman the, jinhonne jaan to sastee aur ijjat mahangee karadee|"

haldeeghaatee (haldighati battlai) ke yuddh mein mugal sena ke hrday mein khauph paida kar tahalaka macha dene vaala yah vrddh veer koee aur nahin gvaaliyar ka antim tomar raaja vikramaadity ka putr raamashaah tanvar ramshah tomar tha| 1526 ee. paaneepat ke yuddh mein raaja vikramaadity ke maare jaane ke samay raamashaah tanvar rams tanwar maatr 10 varsh kee aayu ke the| paaneepat yuddh ke baad poora parivaar khaanaabadosh ho gaya aur idhar udhar bhatakata raha| yuva raamashaah (ram singh tomar) ne apana petrq raajy raajy paane kee kaee koshishen kee par sab naakaamayaab huee| aakhir 1558 ee. mein gvaaliyar paane ka aakhiree prayaas asaphal hone ke baad raamashaah chambal ke beehad chhod veeron ke svarg va sharanasthalee chitaud kee or chal pade|

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karnal tod ne haldeeghaatee ke yuddh mein raamashaah tomar, usake putr va 350tomar raajapooton ka marana likha hai| tod ne likha- "tanvaron ne apane praanon se rn (mevaad ka) chooka diya|" tomaron ka itihaas mein is ghatana par likha hai ki- "gat pachaas varshon se hrday mein nirantar prajjvalit agni shikha ka antim prakaash-punj dikhakar, anek shatruon ke ushn rakt se raktataal ko ranjit karate hue mevaad kee svatantrata kee raksha ke nimitt dharaashaayee hua vikram sut raamasinh tomar|" lekhak dvivedee likhate hai- "tomaron ne raanaon ke prashray ka mooly chuka diya|" bhaarateey prashaasanik seva ke adhikaaree va itihaasakaar sajjan sinh raanaavat ek lekh mein likhate hai- "yah tanvar veer apane teen putron shaalivaahan, bhavaaneesinh va prataap sinh ke saath aaj bhee rakt talaee (jahaan mahaaraana va akabar kee sena ke madhy yuddh hua) mein leta haldeeghaatee ko amar teerth bana raha hai| inakee veerata va kurbaanee bemisaal hai, in chaaron baap-beton par hajaar paramaveer chakr nyochhaavar kiye jae to bhee kam hai|"

tejasinh tarun apanee pustak "raajasthaan ke soorama" mein likhate hai- "apanon ke lie apane ko marate to praay: sarvatr suna jaata hai, lekin gairon ke lie balidaan hota dekhane mein kam hee aata hai| raamashaah tanvar, jo raajasthaan athava mevaad ka na raaja tha aur na hee saamant, lekin vishv prasiddh haldeeghaatee ke yuddh mein is veer purush ne jis kaushal ka parichay dete hue apana aur veer putron ka balidaan diya vah svarn aksharon mein likhe jaane yogy hai|"

jaane maane kshatriy chintak deveesinh, mahaar ne ek sabha ko sambodhit karate hue kaha- "haldeeghaatee ke yuddh mein mahaaraana prataap yadi anubhavee va vayovrddh yoddha raamashaah tanvar kee sujhaee yuddh neeti ko pooree tarah amal mein lete to haldeeghaatee ke yuddh ke nirnay kuchh aur hota| mahaar saahab ke anusaar raamashaah tanvar ka anubhav aur mahaaraana kee oorja ka yadi sahee samanvay hota to aaj itihaas kuchh aur hota|"

dhany hai yah bhaarat bhoomi jahaan raamashaah tanvar ramshah tanwar jinhen raamasinh tomar ramsingh tomar, raamasa tomar rams tomar aadi naamon se bhee jaana jaata raha hai, jaise veeron ne janm liya aur maatrbhoomi ke lie uchchakoti ke balidaan dene ka udaaharan pesh kar aane vaalee peedhiyon ke lie ek aadarsh prerak paimaana pesh kiya|



Ramshah Tanwar, the indomitable warrior of Haldighati

 18 June. In 1576, there was a fierce battle between the armies of Maharana Pratap and Akbar in Haldighati. To win the war, life was at stake. Haldighati turned into a blood pool after bleeding from the severed heads of the soldiers due to the swords of the heroes. Today the color of the soil of the valley was looking red, not turmeric. In this war, an old hero was seen with his three sons and his near-vanshi brothers ridding the enemy's sixes in Haraval (front row). The engrossed in the battle with which this warrior was proceeding to behead the soldiers of the enemy while wielding a sword, at that time even at that old age, seeing his valor, valor and expressions on his face, it seemed that this old warrior might be in Mewar today. Someone is fighting a fierce battle even in this resting age to repay the debt. Akbar's court writer and warrior Badauni pressed his finger under his teeth, seeing this warrior giving an introduction to his unparalleled fighting skills, releasing the sixes of the Mughal army. Badauni saw that the warrior left the elephant fight on the right and reached the main part of the Mughal army and created a fight there. Al Badayuni writes- “Ramshah, the grandson of the famous Raja Mann of Gwalior, always lived in the Harawal (front line) of the Rana, showing such valor which is beyond the power of writing to describe. Due to his sharp attack, the Rajputs of Mansingh on the left side in Harawal had to flee and take refuge in the Sayyids of the right side, due to which Asaf Khan had to flee. If the Sayyids did not survive at this time, then the fledgling army of Harawal had created such a situation that we would have been defeated with notoriety."

 Seeing such a scene of Rajput valor and sacrifice, Abul Fazal, a Navratna courtier of Akbar, wrote - "These two Lashkars were friends of battle and enemies of life, who made life cheap and honor expensive."

 In the battle of Haldighati Battle, this old hero who created panic in the heart of the Mughal army was none other than Ramshah Tanwar Ramshah Tomar, son of the last Tomar king Vikramaditya of Gwalior. Ramshah Tanwar Ramsa Tanwar was only 10 years old when King Vikramaditya was killed in the battle of Panipat in 1526 AD. After the war of Panipat, the whole family became nomadic and wandered here and there. Young Ramshah (Ram Singh Tomar) made many efforts to get his ancestral state, but all failed. After all, in 1558 AD, after the last attempt to get Gwalior was unsuccessful, Ramshah left the ravines of Chambal and headed towards Chittor, the paradise and refuge of the heroes.

 The Veerprasuta land of Mewar, which was not only a place of pilgrimage but also a place of pilgrimage for the heroes at that time, but Ramshah Tanwar was welcomed by Maharana Udai Singh of Mewar according to the guest tradition. Not only this, Maharana Udai Singh married one of his princesses to Ramshah Tanwar's son Shalivahan and further strengthened the relationship. According to Colonel Tod and Veer Vinod, he was also given a jagir in Mewar. Due to these relations, Ramshah Tanwar stayed in Mewar and was always ready to sacrifice everything for Mewar in return for the respect received there.

 Colonel Tod has written the death of Ramshah Tomar, his son and 350 Tomar Rajputs in the battle of Haldighati. Todd wrote- "The Tanwars have repaid the debt (of Mewar) with their lives." In the history of the Tomars it is written on this incident that - "Vikram, seeing the last ray of fire burning continuously in the heart for the last fifty years, tinged the blood with the hot blood of many enemies, collapsed for the defense of Mewar's freedom. Sut Ramsingh Tomar. The author Dwivedi writes- "The Tomars paid the price for the patronage of the Ranas." Indian Administrative Service officer and historian Sajjan Singh Ranawat writes in an article - "This Tanwar Veer, along with his three sons Shalivahan, Bhawani Singh and Pratap Singh, is still lying in Rakt Talai (where there was a war between Maharana and Akbar's army) in Haldighati. Is making them an immortal pilgrimage. Their valor and sacrifice are unmatched, even if thousands of Param Vir Chakras are sacrificed on these four fathers and sons, it is less.

 Tejasingh Tarun writes in his book "Surma of Rajasthan" - "It is often heard everywhere that you die for your loved ones, but sacrifices are rarely seen for the people. Ramshah Tanwar, who is the leader of Rajasthan or Mewar. He was neither a king nor a feudatory, but the skill with which this brave man sacrificed himself and his brave sons in the world famous battle of Haldighati is worth writing in golden letters.

 Well-known Kshatriya thinker Devi Singh, Mahar while addressing a gathering said- "If Maharana Pratap had fully implemented the war policy suggested by experienced and veteran warrior Ramshah Tanwar in the battle of Haldighati, then the decision of the battle of Haldighati would have been different. According to Mahar Saheb, if the experience of Ramshah Tanwar and the energy of Maharana had been properly coordinated, today history would have been different.

 Blessed is this land of India where Ramshah Tanwar Ramshah Tanwar, who is also known by the names Ramsingh Tomar Ramsingh Tomar, Ramsa Tomar Ramsa Tomar etc., such heroes were born and presented the example of making high-quality sacrifices for the motherland for the coming generations. introduced an ideal motivational scale for

Tuesday, June 22, 2021

विश्व योग दिवस 2021: योग का संपूर्ण इतिहास*

*विश्व योग दिवस 2021: योग का संपूर्ण इतिहास* 

🚩योग के प्रचलन के इतिहास को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं पहला हिन्दू परंपरा से प्राप्त इतिहास और दूसरा शोध पर आधारित इतिहास। योग का इतिहास बहुत ही वृहद है हमनें इसे यहां पर संक्षिप्त रूप से लिखा है। कहते हैं कि भारत में योग लगभग 15 हजार वर्षों से निरंतर प्रचलित है। सभ्यताओं के युग से पूर्व ही ऋषि मुनियों ने पशु-पक्षियों आदि को देखकर योग के आसन विकसित किए और फिर इस तरह योग में कई आयाम जुड़ते गए।
 
🚩हिन्दू परंपरा पर आधारित योग का इतिहास
 
1. 🚩योग का उपदेश सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ब्रह्मा ने सनकादिकों को, इसके बाद विवस्वान सूर्य, रुद्रादि को दिया। बाद में यह दो शाखाओं में विभक्त हो गया। एक ब्रह्मयोग और दूसरा कर्मयोग।
 
2.🚩 ब्रह्मयोग की परम्परा सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, कपिल, आसुरि, वोढु, पंच्चशिख नारद और शुकादिकों ने शुरू की थी। यह ब्रह्मयोग लोगों के बीच में ज्ञानयोग, अध्यात्मयोग और सांख्ययोग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
 
3. 🚩दूसरी कर्मयोग की परम्परा विवस्वान की है। विवस्वान ने वैवस्वत मनु को, मनु ने ऋषभदेव और इक्ष्वाकु को, इक्ष्वाकु ने राजर्षियों एवं प्रजाओं को योग का उपदेश दिया। फिर भगवान श्रीराम को ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र ने यह ज्ञान दिया।

4. 🚩परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान महर्षि सांदीपनि, वेदव्यास, गर्गमुनि, घोर अंगिरस, नेमिनाथ आदि गुरुओं ने भगवान श्रीकृष्ण को दिया और श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिया।
 
5. 🚩योग के इसी ज्ञान को बाद में भगवान महावीर स्वामी ने पंच महाव्रत और गौतम बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग नाम से विस्तार दिया।
 
6. 🚩परंपरा से ही यह ज्ञान महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र के माध्यम से और आदि शंकराचार्य ने वेदांत के माध्यम से इसका प्रचार-प्रसार किया।
 
7. 🚩इसी ज्ञान को बाद में 84 नाथों की परंपरा ने हठयोग के नाम से आगे बढ़ाया जिनके प्रमुख योगी थे गुरु मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गोरखनाथ। 
 
8. 🚩शैव परंपरा के अनुसार योग का प्रारंभ आदिदेव शिवजी से होता है। शिवजी ने योग की पहली शिक्षा अपनी पत्नी पार्वती को दी थी।
 
9. 🚩शिवजी ने दूसरी शिक्षा केदारनाथ में कांति सरोवर के तट पर अपने पहले 7 शिष्यों को दी थी, जिन्हें सप्तऋषि कहा जाता है। 
 
10. 🚩भगवान शिव की योग परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष शिव, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भारद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरीष मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया।
 
11. 🚩भगवान शिव के बाद योग के सबसे बड़े गुरु गुरु दत्तात्रेय थे। गुरु दत्तात्रेय की योग परंपरा में ही आगे चलकर आदि शंकराचार्य और गोरखनाथ की परंपरा का प्रारंभ होता है।
 
12. 🚩गुरु गोरखनाथ की 84 सिद्धों और नवनाथ की परंपरा में मध्यकाल में कई महान संत हुए जिन्होंने योग को आगे बढ़ाया। संत गोगादेवजी, रामसापीर, संत ज्ञानेश्‍वर, रविदासजी महाराज से लेकर परमहंस योगानंद, रमण महर्षि और स्वामी विवेकानंद, स्वामी शिवानंद तक हजारों योगी हुए हैं जिन्होंने योग के विकास में योगदान दिया है।
 
🚩शोध पर आधारित योग का इतिहास
 
1. 🚩श्रीराम के काल में योग : नए शोध के अनुसार 5114 ईसा पूर्व प्रभु श्रीराम का जन्म हुआ था। उस वक्त महर्षि वशिष्ठ, विश्वामित्र और वाल्मीकिजी लोगों को योग की शिक्षा देते थे।
 
2. 🚩श्रीकृष्‍ण के काल में योग : नए शोधानुसार भगवान श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। उन्होंने अर्जुन को योग की शिक्षा दी थी।
 
3. 🚩सिंधु घाटी सभ्यता काल में योग : योगाभ्यास का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ईस्वी पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के समय की मुहरों और मूर्तियों में मिलता है। इसके अलावा भारत की प्राचीन गुफाएं, मंदिरों और स्मारकों पर योग आसनों के चिह्न आज भी खुदे हुए हैं। 
 
4.🚩 ऋग्वेद काल में योग : संसार की प्रथम पुस्तक 'ऋग्वेद' में यौगिक क्रियाओं का उल्लेख मिलता है। हजारों वर्षों की वाचिक परंपरा के बाद 1500 ईसा पूर्व वेद लिखे गए।
 
5. 🚩महावीर स्वामी के काल में योग : भगवान महावीर स्वामी का जन्म 599 ईस्वी पूर्व हुआ था। उन्होंने योग के आधार पर ही पंच महाव्रत का सिद्धांत प्रतिपादित किया था।
 
6. 🚩बौद्ध काल में योग : भगवान बुद्ध का जन्म 483 ईस्वी पूर्व हुआ था। उन्होंने योग के आधार पर ही आष्टांगिक मार्ग का निर्माण किया था।

7. 🚩आदि शंकराचार्य के काल में योग : मठ परंपरा के अनुसार आदि शंकराचार्य का जन्म 508 ईसा पूर्व और मृत्यु 474 ईसा पूर्व हुई थी। इतिहासकारों के अनुसार 788 ईस्वी में जन्म और 820 ईस्वी में मृत्यु हुई थी। उनसे योग की एक नई परंपरा की शुरुआत होती है।
 
8. 🚩महर्षि पतंजलि के काल में योग : महर्षि पतंजलि ने योग का प्रामाणिक ग्रंथ 'योगसूत्र' को 200 ईस्वी पूर्व लिखा था। योगसूत्र पर बाद के योग शिक्षकों ने कई भाष्य लिखे हैं।
 
9. 🚩हिन्दू संन्यासियों के 13 अखाड़ों में योग : सन् 660 ईस्वी में सर्वप्रथम आवाहन अखाड़ा की स्थापना हुई। सन्‌ 760 में अटल अखाड़ा, सन्‌ 862 में महानिर्वाणी अखाड़ा, सन्‌ 969 में आनंद अखाड़ा, सन्‌ 1017 में निरंजनी अखाड़ा और अंत में सन्‌ 1259 में जूना अखाड़े की स्थापना का उल्लेख मिलता है।
 
10. 🚩गुरु गोरखनाथ के काल में योग : पतंजलि के योगसूत्र के बाद गुरु गोरखनाथ ने सबसे प्रचलित 'हठयोग प्रदीपिका' नामक ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ की प्राप्त सबसे प्राचीन पांडुलिपि 15वीं सदी की है।
 
11. 🚩मध्यकाल में योग : गुरु गोरखनाथ की 84 सिद्धों और नवनाथ की परंपरा में मध्यकाल में कई महान संत हुए जिन्होंने योग को आगे बढ़ाया। संत गोगादेवजी, रामसापीर, संत ज्ञानेश्‍वर, रविदासजी महाराज से लेकर परमहंस योगानंद, रमण महर्षि और विवेकानंद , परमहंस शिवानन्द तक हजारों योगी हुए हैं जिन्होंने योग के विकास में योगदान दिया है।

Monday, June 21, 2021

shivraj

शिवराज:
विश्वहितं ते चरितं नीतिनिधानम

*शिवराजः*

विश्वहितं ते चरितं नीतिनिधानम्।

त्वां नमामि शिवनृपाल! संततं स्मरामि ते।।
विशुद्धशील! अखिलविश्ववंद्य- भूपते!

त्वं जनपदसंस्कर्ता
त्वं जनगणधीदाता
गोद्विजपरिपालकशिवसाधूनां त्वं त्राता
त्वाम् अभिजनमार्तानां बांधवमतिदीनानां
श्रीशिवनृपवर्य! भजति मे हृदयम्

राष्ट्रमिदं दुष्टाभिहतं
क्षीणबलं येनोत्थापीतमखिलं
तं प्रबलं वीरप्रवरं
भूपवरं चिंतये

हे जगदभिराम! दुष्टखलविराम!
पुरीतशुभकाम! पुण्यचरितधाम!
देवपरमवीर! शत्रुशमनधीर!
विश्वहितं ते चरितं नीतिनिधानम्

|| प्रभो शिवाजी राजा || भारतमाता की जय ||*शिवराजः*

विश्वहितं ते चरितं *शिवराजः*

विश्वहितं ते चरितं नीतिनिधानम्।

त्वां नमामि शिवनृपाल! संततं स्मरामि ते।।
विशुद्धशील! अखिलविश्ववंद्य- भूपते!

त्वं जनपदसंस्कर्ता
त्वं जनगणधीदाता
गोद्विजपरिपालकशिवसाधूनां त्वं त्राता
त्वाम् अभिजनमार्तानां बांधवमतिदीनानां
श्रीशिवनृपवर्य! भजति मे हृदयम्

राष्ट्रमिदं दुष्टाभिहतं
क्षीणबलं येनोत्थापीतमखिलं
तं प्रबलं वीरप्रवरं
भूपवरं चिंतये

हे जगदभिराम! दुष्टखलविराम!
पुरीतशुभकाम! पुण्यचरितधाम!
देवपरमवीर! शत्रुशमनधीर!
विश्वहितं ते चरितं नीतिनिधानम्

|| प्रभो शिवाजी राजा || भारतमाता की जय ||

Sunday, June 20, 2021

international yog diwas

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस, 

आइए हम समझें और अमल करें: 

यह सामाजिक आचार संहिता है जो समाज, अन्य प्रजातियों और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति हमारी जिम्मेदारी को परिभाषित करती है। यम पांच हैं: अहिंसा: एक आर और सभी को शब्द, कर्म और विचार के माध्यम से गैर-चोट को दर्शाता है, समाज में घरेलू और संबद्ध हिंसा को रोकने में भी सहायक है। 
सत्यय : हमेशा मधुर बोलो और समाज के समग्र लाभ के लिए सच बोलो। 
अस्तेयय : चोरी न करना । भ्रष्ट तरीकों से नहीं बल्कि ईमानदार तरीकों से चीजों को हासिल करना बुरी आदतों और सामाजिक-आर्थिक अपराधों के लिए प्रभावी प्रतिरक्षी हो सकता है। 
 ५ ब्रम्चार्य : अपनी इंद्रियों और इच्छाओं पर शब्द, कर्म और विचार पर उचित संयम रखना, बहुआयामी ज्ञान प्राप्त करना ब्रह्मचर्य है। अपरिग्रह : समाज में सामाजिक-आर्थिक संतुलन बनाए रखने के लिए अपनी वास्तविक जरूरतों से अधिक भौतिक संपत्ति जमा नहीं करना है। नियम: ये पांच सिद्धांत हैं जो व्यक्तिगत आचार संहिता का गठन करते हैं जैसे शौच जो एक संतुलित इंसान बनने के लिए आंतरिक और बाहरी स्वच्छता का प्रतीक है। संतोष : हमारे कठिन परिश्रम से जो कुछ प्राप्त होता है उसमें संतोष ही वास्तविक सुख का आधार है। वर्तमान में लोग ईर्ष्या और असंतोष की अगली कड़ी के रूप में तनावग्रस्त और दुखी हैं। तप या तपस्या : इन्द्रियों, शरीर और मन पर नियंत्रण ही तप है जो जीवन में पवित्रता लाती है। वर्तमान समय में मितव्ययिता का पालन न करना अराजकता और आपराधिक अपराधों में भारी वृद्धि के लिए जिम्मेदार रहा है। स्वाध्याय: शास्त्रों का अध्ययन, आत्मनिरीक्षण और स्वयं की समझ स्वाध्याय है जो आत्म सुधार के लिए अनिवार्य है।

हमारी इन्द्रियों के गुण और उनके लाभ और सन्यासी, जो सामान्य परिवार के लिए नहीं हैं, ईश्वर प्रणिधान सभी सक्रिय-समाधि का समर्पण है: यह मोक्स सर्वशक्तिमान के लिए अंतिम गंतव्य है। यह लगाव और अहंकार फ़र्श धारकों को समाप्त करता है। आत्म-साक्षात्कार का मार्ग। आसन: आसन का नियमित अभ्यास एक और सभी भौतिक शरीर के जीवन को बदलने की लचीली क्षमता के लिए है और वर्तमान महामारी और वांछित रोग के लिए निष्क्रिय ऊर्जा-सिद्ध टीके को भी सक्रिय करता है और साथ ही शरीर को शुद्ध करता है। प्राणायाम: प्राणायाम का निरंतर अभ्यास स्थिर और आत्मा दिव्य स्पष्ट आह्वान है। भारतीय योक मन (सूक्ष्म शरीर), प्राण शक-संथान को नियंत्रित और विस्तारित करता है, पूरे शरीर में ferti (ब्रह्मांडीय ऊर्जा) के लिए देश में घरेलू नाम है। प्रत्याहार: १० अप्रैल, १९६७ को अपने अवतार की सांसारिक तिथि से निरंतर वापसी है, जिसमें १० लगाव, संवेदी सुख शामिल हैं और भारतीयों के सक्रिय समर्थन के साथ विदेशी देशों के लिए पुल के रूप में कार्य करता है- बहिरंग साधना से अंतरंग साधना में प्रवेश करना। धारणा: ध्यान की तैयारी है जिसमें वर्तमान महामारी के समय में भी जम्मू प्रैक्टिशनर संस्थान द्वारा अपनी एकाग्रता की शक्ति को मजबूत करता है, स्वयंसेवक अपनी रुचि की विशिष्ट वस्तुओं पर ऑनलाइन योग का आयोजन कर रहे हैं। ध्यान: चित्त की शुद्धि के लिए अभ्यास किया जाता है। (8 से 20 वर्ष की आयु के बच्चे 15 जून से चेतना तक) या कारण निकाय जिसमें आपके विचारों और गतिविधियों के निदेशालय के सहयोग से 24 जून, 2021 के सभी छापे जमा हो जाते हैं। इस मामले की जड़ यह है कि अष्टांग योग में संपूर्ण स्वास्थ्य है। प्रतीकवाद नहीं बल्कि अक्षर योग को उसमें से लेकर आम जनता की दहलीज तक अपनाना। मानव सेवा संस्थान का पोषित लक्ष्य है।
INTERNATIONAL YOGA DAY,  LET US UNDERSTAND AND ACT                                       YAM : This is social code of conduct which defines our is responsibility towards the society , other species and nat - ural resources . Yam are five : AHINSA : Connotes non - injury to one r and all by way of word , deed and thought , is also instru mental in arresting domestic and allied violence in the society . SATYA : Always speak truth melodiously and for the overall benefit of society . ASTEYA : Non- stealing . Acquiring things by honest means and not by corrupt means can be effective antidote to deeply embedded mal practices and socio - economic crimes . 5 BRAMCARYA : Exercising reasonable restraint on ones senses and desires in word , deed and thought together with gaining multi dimensional knowledge is Bramcharya . APRIGRAHA : is not to accumulate material wealth beyond ones actual needs to maintain socio - economic balance in the society . NIYAM : These are five principles which constitute Personal code of conduct such as SHAUCH which signi fies internal and external cleanliness for becoming a bal anced human being . SANTOSH : It is contentment with what we have out of our hard labour which is the basis of real happiness . Presently the people are tensed and unhappy as sequel of jealousy and discontentment . TAPA or AUSTERITY : Control of sense organs , body and mind is austerity which brings purity to life . Non obser vance of austerity in the current times has been responsi ble for steep hike in lawlessness and criminal offences . SWADHYAY : The study of scriptures , self introspec tion and understanding of one's own self is Swadhyay which is indispensable for self improvement .

ities of our sense organs and the benefits thereof to and ascetics and not generally meant for common family ISHWAR PRANIDHAN is surrendering of all the activ- SAMADHI: This is the ultimate destination for moaks ALMIGHTY. This eliminates attachment and ego paving holders. way for Self realization. ASAN: Regular Practice of Asans is meant for flexibil- mous potential to transform lives of one and all ond ity of physical body and also activates the dormant ener- proven vaccine for the current Pandemic and desired gy as well as purifies the body. PRANAYAM: Persistent practice of Pranayam steadies and spirit is the divine clarion call. BHARTIYA YOC the mind(Subtle body), regulates and expands pran shak- SANTHAN, is the house hold name in the country for fer- ti( cosmic energy) across the entire body. PRATYAHAR: is sustained withdrawal from worldly date of its incarnation on 10th April, 1967 inclusive of 10 attachment, sensory pleasures and acts as bridge for foreign countries with the active support of Indians set- entering into Antrang Sadhna from Bahirang Sadhna. DHARNA: is preparatory to Dhyan wherein the Even during the current Pandemic times Jammu Practitioner strengthens his power of concentration by sansthan volunteers have been conducting online yog ocussing on specified objects of his interest. DHYAN: is practised for purification of CHITT. ( con- children in the age group of 8 to 20 years w.e.f 15 June to ciousness) or Causal Body wherein the impressions of all 24th June, 2021 in collaboration with Directorate of ur thoughts and activities get stored. Crux of the matter is that ASHTANG YOG has enor- holistic health. Not symbolism but adopting it in letter rying Yog to the threshold of common masses right from tled therein. Human service is Sansthans cherished goal.

Wednesday, June 16, 2021

GURUJI SUBHASHIT

प०पू० श्री गुरुजी ने कहा:-
 सेवा करने से हृदय शुद्ध होता है,अहं  भाव दूर होता है,सर्वत्र परमात्मा का दर्शन करने का अभ्यास होकर बहुत शांति प्राप्त होती है। 
संदर्भ: (पत्र रूप श्री गुरुजी पृष्ठ 436)

सेवा सुभाषित:- 
 *साहब ते सेवक बड़ो जो निज  धरम सुजान ।*
*राम बांधि  उतरे उदधि लाँघि  गए हनुमान।।* 
(तुलसीदास जी)
भावार्थ: सर्वोत्तम धर्म सेवा का पालन करते हुए सेवक स्वामी से बड़ा कार्य कर सकता है।सेवा धर्म का पालन करके हनुमान जी समुद्र को लांघ गए जबकि भगवान रामको समुद्रपार  करने के लिए सेतु बनाना पड़ा ।

jayatu jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai koti hindu adhiraaj tumhara abhivaadan hai i jayatu

गीत

https://youtu.be/VKd_1oZ270k

jayatu jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai koti hindu adhiraaj tumhara abhivaadan hai i jayatu

जयतु -जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है I

कोटि हिन्दु अधिराज तुम्हारा अभिवादन है I
जयतु -जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है II

कोटि - कोटि हिन्दु जन - मन के तुम उन्नायक I
सत्य सनातन धर्म राज्य के तुम गणनायक II
कीर्ति आपकी रखे सुवासित धरा गगन है I
जयतु -जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है II

तुम्हें गढ़ा माता जीजा ने बड़े जतन से I
कथा सुना वीरों की गीता -रामायण से  II
हिन्दु स्वराजी भाव तुम्हारे हृदयांगन हैं I
जयतु -जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है II

मातृभूमि सम्मान विजय हित तेरी वेदना I
वीर मावलों के संग मिलकर करी योजना II
यवन - मुग़ल संहार हिन्दु हित अंतर्मन  है I
जयतु -जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है II

कोटि कंठ से गूंजा जय तुलजा का नारा I
छत्रपति शिवराज बने बोलो जयकारा II
दिग्दिगन्त उल्लास ह्रदय से प्रजा मगन है I
जयतु - जयतु शिवराज तुम्हारा अभिनन्दन है II

                          

geet

jayatu -jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai i   koti hindu adhiraaj tumhaara abhivaadan hai i jayatu -jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai ii  koti - koti hindu jan - man ke tum unnaayak i  saty sanaatan dharm raajy ke tum gananaayak ii keerti aapakee rakhe suvaasit dhara gagan hai i jayatu -jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai ii  tumhen gadha maata

jeeja ne bade jatan se i katha suna veeron kee geeta -raamaayan se  ii hindu svaraajee bhaav tumhaare hrdayaangan hain i jayatu -jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai ii  maatrbhoomi sammaan vijay hit teree vedana i veer maavalon ke sang milakar karee yojana ii yavan - mugal sanhaar hindu hit antarman  hai i jayatu -jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai ii  koti kanth se goonja jay tulaja ka naara i chhatrapati shivaraaj bane bolo jayakaara ii digdigant ullaas hraday se praja magan hai i jayatu - jayatu shivaraaj tumhaara abhinandan hai ii




       
                        song

Jayatu - Jayatu Shivraj is your greeting.

Koti Hindu Adhiraj is your salutation.
Jayatu - Jayatu Shivraj is your greetings II

You are the Unnayak of Hindu people.
Tum Ganaanayak II of Satya Sanatan Dharma Rajya
Your fame is the fragrant land of heaven.
Jayatu - Jayatu Shivraj is your greeting II

Mother-in-law coined you with great care.
Heard the story of the heroes from the Gita - Ramayana II
Hindu Swarajya Bhava is in your heart.
Jayatu - Jayatu Shivraj is your greeting II

Motherland Respect Victory Hit Your Pain I
Curry Scheme II in association with Veer Mavals
Yavan - Mughal annihilation is Hindu interest.
Jayatu - Jayatu Shivraj is your greeting II

Jai Tulja's slogan resonated with Koti's throat.
Chhatrapati Shivraj Bane Bolo Jaikara II
The people are happy from the heart of great joy.
Jayatu - Jayatu Shivraj is your greeting II

banda bairaagee mera veer dogara banda bairagi mera veer dogarao lakshman devtera naan te ghar tere

धन्यवाद
हिंदू जागे देश जागे की कड़ी में
भारतभाग्य विधाता प्रोडक्शन के साथ

https://youtu.be/nOwwUIB3xIs


बन्दा बैरागी मेरा वीर डोगरा , बन्दा बैरागी मेरा वीर डोगरा ।
ओ लक्ष्मण देव तेरा नां , ते घर तेरे पुंछ रजौरी ॥
बन्दा बैरागी ....

तीर कमान कन्ने घोड़े दी सवारी ए ,
राजपूत वीर होइये हिरनी गी मारी ए
ओ घर बार छोड़े संगी साथी , नंदेड च लाई देहरी ।
बन्दा बैरागी ...

जुलमे गी सहे उसे हिन्दू नइओ आखदे , माला जपी धर्म बचाइ नइओ सकदे
ओ उठ बन्दे सिख तुकी दिन्दे , गुरु गोबिन्द हो री ।
बन्दा बैरागी ...

चुकी करपाण तलवार लशकाइओड़ी , मारी मारी मुगले दी ला कराइओड़ी
ओ बन्दे दी आया इन्ना जुंग , के मुंडियाँ दी लाई टेरी ।
बन्दा बैरागी ....

banda bairaagee mera veer dogara , banda bairaagee mera veer dogara . o lakshman dev tera naan , te ghar tere punchh

rajauree . banda bairaagee ....

teer kamaan kanne ghode dee savaaree e , raajapoot veer hoiye hiranee gee maaree e o ghar baar chhode sangee saathee , nanded ch laee deharee . banda bairaagee ... julame gee sahe use hindoo naio aakhade , maala japee dharm bachai naio sakade o uth bande sikh tukee dinde , guru gobind ho ree . banda bairaagee ... chukee karapaan talavaar lashakaiodee , maaree maaree mugale dee la karaiodee o bande dee aaya inna jung , ke mundiyaan dee laee teree . banda bairaagee ....


Banda Bairagi is my Veer Dogra, Banda Bairagi is my Veer Dogra.  O Laxman Dev, your name, your home, your Poonch Rajouri  Banda Bairagi .... Arrow command Kanne Ghode Di Sawari a, Rajput Veer Hoye Hirni Gi Mari Ao Ghar Bar Chhode Saathi Saathi, Nanded Cha Lai Dehri.  Banda Bairagi... Sahe him atrocities Hindu Naio aakhde, garland japi dharma, save naio sakde o ut bande sikh tuki dinde, Guru Gobind ho ri.  Banda Bairagi ... Chuki Karpan Talwar Lashkaiodi, Mari Mari Mughle di la Karaiodi o Bande di Aaya Inna Jung, Ke Mundian di Lai Terry.  Banda Bairagi ....

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