Friday, June 25, 2021

HINDU SAMRAJY Diwas हिंदू साम्राज्य दिवस

        हिन्दू विजय युग प्रवर्तक छत्रपति शिवाजी महाराज
        अपने महापुरुषों का स्मरण भारत में एक श्रेष्ठ परम्परा रही है। कथा-कहानियों से लगाकर पुस्तकों तक उनके कर्तृत्व और आदर्श जीवन का सजीव चित्रण किया गया है। यदा-कदा पर्वों के माध्यम से भी हमने उनका स्मरण करना अपना पुनीत कर्तव्य समझा है। रामनवमी में भगवान राम का, शिवरात्रि में भगवान शिव का, नवरात्रों में भगवती दुर्गा माँ का स्मरण, वसंतोत्सव में वाणी की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती की वंदना, हिन्दू साम्राज्य दिवस पर छत्रपति शिवाजी महाराज का शुभ आचरण हमारे लिए प्रेरणादायक रहा है। 
         यह कथा है – हिन्दू विजय युग प्रवर्तक छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन-प्रसंगों की, जिन्होंने देश व धर्म की रक्षा के लिए सतत संघर्ष किया। वह एक कुशल प्रशासक, महान सेनानायक, अदम्य साहस, शौर्य एवं स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति थे। 

छत्रपति शिवाजी - 
     छोटा बालक एक छोटे से सिंहासन पर बैठा है। उसके गाँव के लोग गाँव के एक पटेल को पकड़कर ले आए हैं, क्योंकि उसने एक अनाथ विधवा पर अत्याचार किया था। पटेल के हाथ-पैर बंधे हुए हैं। वास्तव में अनाथ, असहायों का संरक्षण करना ही पटेल का कर्तव्य था, परन्तु वह बड़ा दुष्ट और घमण्डी था। उसने कल्पना तक नहीं की थी, कि यह छोटा बालक उसकी जांच-पड़ताल कराने का कभी साहस करेगा। परन्तु उस बालक राजपुत्र ने पटेल को केवल पकड़ाया ही नहीं, बल्कि उसे न्याय के लिए प्रस्तुत किया। सब कुछ सुन लेने पर यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो गई, कि पटेल ने घोर अपराध किया था। अपने दृढ़ और कड़े स्वर में बाल राजकुमार ने निर्णय दिया, कि इसके हाथ और दोनों पैर काट दिए जाएँ। सभी सन्न रह गए। राजकुमार की न्यायप्रियता देख वे लोग केवल चकित ही नहीं हुए, बल्कि उन्हें अमित आनन्द भी हुआ। लोग आपस में चर्चा करने लगे – “देखो तो हमारा नन्हा राजकुमार कितना न्यायप्रिय है। दुष्टों का थोड़ा भी भय नहीं है। दीन-दुखियों के लिए उसके हृदय में अपार दया तथा करुणा का भाव है। उनकी सहायता करना एवं उनका संरक्षण करना उसका प्रण है। विशेष यह है, कि वह सब स्त्रियों का माता के समान आदर करता है। निश्चित ही वह बड़ा होकर वह अपनी मातृभूमि का रक्षण तो करेगा ही, अपितु धर्म का भी उद्धार करेगा। अतः हमें उसे अवश्य सहयोग देना चाहिए। वह बालक राजकुमार था – शिवाजी।  

शिवाजी का जन्म –
     इस घटना के समय शिवाजी की आयु मात्र 14 वर्ष की थी। उसके छोटे से राज्य में पुणे और आसपास के छोटे-छोटे गांवों का समावेश था। शिवाजी का जन्म सन् 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ। उनके पिताजी शाहजी भोंसले तथा माता जीजाबाई थीं। उसके पिता शाहजी बीजापुर के सुल्तान के सेनापति थे। पिता को अपने पुत्र का स्वभाव पूरी तरह से ज्ञात था। विदेशी शासक के सामने न झुकने वाले सिंह के समान अपने निर्भय पुत्र का ध्यान आते ही शाहजी आनंदित होते थे। शिवाजी की निर्भयता शाहजी के सम्मुख जिस प्रसंग के द्वारा प्रकट हुई, वह भी बड़ा मनोरंजक है। एक बार शाहजी अपने पुत्र को बीजापुर के दरबार में ले गए। उस समय शिवाजी की आयु बारह वर्ष भी नहीं थी। दरबार में जाते ही प्रथा के अनुसार शाहजी ने जमीन पर हाथ लगाकर सुल्तान को तीन बार सलाम किया। उसने अपने पुत्र को भी सुल्तान को सलाम करने के लिए कहा। परन्तु वह तन कर खड़ा हो गया, उसने अपने मस्तक को पीछे हटाया – “मैं पराए शासकों के सामने कभी नहीं झुकूँगा।“ उसके मन का निश्चय मानो उसकी तीव्र दृष्टि से प्रकट हो रहा था। सिंह जैसी विजयी चाल और शान से वह दरबार से निकल गया। बीजापुर के सुल्तान के दरबार मेँ आज तक ऐसा व्यवहार करने की हिम्मत किसी ने भी नहीं की थी। उस छोटे बच्चे का धैर्य देखकर सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए थे। अपने पुत्र के ऐसे कृत्यों के कारण शाहजी बिल्कुल क्रोधित नहीं होते थे, बल्कि मन ही मन उन्हें आनन्द होता था। दुर्दैव से स्वतन्त्र राजा बनने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हुआ था। परन्तु शाहजी अपने पुत्र को एक स्वतन्त्र राजा के रूप मेँ देखना चाहते थे। कदाचित् अपने मन मेँ प्रश्न उठेगा, कि धैर्य, शौर्य, मातृभूमि की भक्ति, धर्म के प्रति अपार निष्ठा व विश्वास आदि दिव्य गुण शिवाजी ने कैसे प्राप्त किए। इसका बहुत बड़ा श्रेय उसकी माताजी जीजाबाई को है। बाल्यकाल से जीजाबाई उसे रामायण, महाभारत तथा पुराणों मेँ वर्णित वीरों, सत्पुरुषों एवं साधु-संतों की कहानियाँ सुनातीं थीं। इन वीर कथाओं व धर्म कथाओं को सुनते-सुनते शिवाजी के मन मेँ राम, कृष्ण, भीम, अर्जुन के समान वीर बनने के विचार उठते थे। शिवाजी पर परमेश्वर की एक और भी कृपा रही। शिक्षक और मार्गदर्शक के रूप मेँ उन्हें दादाजी कोण्डदेव जैसे महापुरुष प्राप्त हुए। कर्नाटक प्रान्त मेँ किसी समय भव्य-दिव्य विजयनगर का साम्राज्य था। उसकी कथाएं जहां-तहां सुनने के लिए मिलतीं थीं। उनसे भी शिवाजी को प्रेरणा मिली। 

शिवनेरी का सौभाग्य
       केवल सोलह वर्ष की छोटी आयु मेँ शिवाजी ने एक किला जीता। उस किले का नाम था – तोरण। केसरिया रंग का पवित्र ध्वज, भगवान का भगवा झण्डा तोरण दुर्ग पर फहराने लगा। शिवाजी ने अपने सैनिकों को स्वराज्य की नींव डालने वाले उस दुर्ग को पूर्ण रूप से मजबूत बनाने की आज्ञा दी। दुर्ग मेँ जब खुदाई प्रारम्भ हुई, तब वहाँ स्वर्ण मुद्राओं से भरे घड़े निकले। कदाचित् देवी लक्ष्मी द्वारा स्वराज्य की स्थापना करने के लिए वह उपहार था। तोरण गढ़ के उपरान्त शिवाजी एक के बाद एक किले जीतने लगे। ये समाचार बीजापुर के सुल्तान के कानों मेँ पहुंचे। शिवाजी को रोकने के लिए सुल्तान ने एक कपट रचा। उसने शाहजी को कैद कर लिया। यह अफवाह फैल गई थी, कि शाहजी को बन्दीगृह मेँ तरह-तरह की यातनाएँ दी जा रहीं हैं। शिवाजी और उनकी माताजी के लिए यह समाचार बहुत व्यथित करने वाला था। उधर एक समाचार यह था, कि बीजापुर का एक सरदार फतेहखान बड़ी सेना के साथ शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए निकला है तथा बीजापुर दरबार के दूसरे सरदार फरादखान को शिवाजी के बड़े भाई सम्भाजी पर हमला करने के लिए भेजा गया है। शिवाजी को डराने, धमकाने और काबू मेँ लाने के लिए यह सब काण्ड रचा गया था। बीजापुर का सुल्तान सोच रहा था, कि ऐसा करने से शिवाजी डरकर उनकी शरण मेँ आ जाएगा, नहीं तो अपने पिता का जीवन संकट मेँ पाकर वह अवश्य समर्पण करेगा। शिवाजी बहुत चिन्तित हुए। उस कठिन अवसर पर शिवाजी की पत्नी सईबाई ने एक मंत्रणा दी। साईबाई केवल चौदह वर्ष की थी। उसने शिवाजी से कहा – “आप इस बात पर इतने चिन्तित क्यों हैं ? ऐसा कुछ कीजिए कि आपके पिताजी भी मुक्त हो जाएँ और स्वराज्य भी बना रहे। प्रथम इस शत्रु का नाश कीजिए।“ साईबाई सचमुच वीर पत्नी थी। शिवाजी ने तुरन्त निर्णय लिया। निकट का एक दुर्ग पुरन्दर - बीजापुर के सुल्तान के अधीन था। शिवाजी ने बड़ी श्रद्धा से उसके दुर्गाधिपति का हृदय जीत लिया। और अपनी एक सेना वहाँ रख दी। जब फतेहखान अपनी सेना लेकर आया, तो शिवाजी की सेना ने पुरन्दर के आश्रय से उसके साथ घमासान युद्ध किया। शिवाजी के सैनिक इतने पराक्रमी थे, कि फतेहखान मैदान छोड़कर भाग निकला। उधर सम्भाजी ने भी फरादखान को पराजित किया। इस प्रकार युद्धों मेँ तो विजय हुई, परन्तु पिता शाहजी को कैसे बचाया जाए, इसकी शिवाजी को घोर चिन्ता लगी थी। शिवाजी को एक युक्ति सूझी। उनके शस्त्रों जैसी उनकी बुद्धि भी पैनी थी। उस समय दिल्ली मेँ बादशाह शाहजहां का राज्य था। शिवाजी ने उसे पत्र लिखा- “मेरे पिताजी को बीजापुर के सुल्तान ने कारागृह मेँ डाल दिया है। उनके वहाँ से मुक्त होते ही मैं और मेरे पिताजी, हम सब लोग आपकी सेवा मेँ आने के लिए बड़े उत्सुक हैं।” बीजापुर के सुल्तान को इस बात का पता चला। सुल्तान इस बात को भली भांति जानता था, कि दिल्ली का बादशाह बीजापुर पर आक्रमण करने की ताक मेँ ही रहता है। यदि बादशाह इस समय बीजापुर पर आक्रमण करता है, तो उसकी स्थिति बहुत दयनीय हो जाएगी। अतः उसने सम्मान के साथ शाहजी को मुक्त किया। इस प्रकार पराक्रम और राजनीतिक चातुर्य, दोनों का उचित उपयोग कर शिवाजी ने स्वराज्य के बड़े संकट को मात दी।      
   जब शिवाजी 28 वर्ष के थे, तब कोंडाणा, पुरन्दर, प्रतापगढ़, राजगढ़, चाकण आदि चालीस दुर्गों पर स्वराज्य का झण्डा फहर रहा था। इस समय भारत के पश्चिमी तट पर अंग्रेज़, पुर्तगाली आदि विदेशी लोगों ने आना शुरू कर दिया था। ये विदेशी लोग किसी दिन सम्पूर्ण भारत को खतरे में डाल सकते हैं, इसकी शिवाजी को पूर्व कल्पना थी। देश को उनसे बचाने के लिए उन्होंने समुद्र किनारे पर दुर्ग बांधना प्रारम्भ किया। उन्होंने युद्धपोती जहाज बनवाए और अपनी नौसेना खड़ी की। विदेशी सत्ताओं से देश को जो खतरा था, उसे सबसे पहले शिवाजी ने आँका। उनके आक्रमणों को रोकने की उन्होंने व्यवस्था की थी। शिवाजी एक दूरद्रष्टा थे। 

शत्रुओं का काल
     सुल्तान आदिलशाह ने देखा, कि शिवाजी का स्वराज्य का स्वप्न पूर्णतय: साकार हो रहा है। वह एक के बाद एक विभिन्न दुर्गों पर अपना नियन्त्रण कर रहा है। आदिलशाह अपने आप को असहाय अनुभव करने लगा। सुल्तान की एक उपमाता थी – उलिया बेगम। एक दिन उसने स्वयं दरबार बुलाया और सब उपस्थित सैन्य अधिकारियों को शिवाजी को पकड़ने के लिए आह्वान किया। तब एक लम्बे-तगड़े, हट्टे-कट्टे सेनापति अफजल खान ने इसकी जिम्मेवारी ली। वह आदिलशाही दरबार का प्रथम श्रेणी का सेनापति था। वह जितना पराक्रमी था, उतना ही क्रूर और कपटी भी था। सुल्तान ने 25 हजार सैनिकों की एक सशक्त सेना उसके साथ भेजी। सबसे पहले अफजल खान ने माँ तुलजा भवानी का मंदिर नष्ट किया। माँ तुलजा भवानी शिवाजी की कुलस्वामिनी थीं। अफजल खान ने हथौड़ा चलाकर मूर्ति के टुकड़े कर दिए थे। इसी प्रकार उसने पंढरपुर की मूर्ति भी भ्रष्ट की। उसकी करतूतों की जानकारी शिवाजी को मिल रही थी। अफजल खान यह जानता था, कि जब तक शिवाजी अपने दुर्ग में हैं, या घने जंगल में हैं, तब तक उसको पराजित करना बहुत कठिन है। वह सोचता था, कि मंदिरों को नष्ट करने से, गौहत्या करने से और स्त्रियों को भ्रष्ट करने से वह अवश्य प्रतिशोध के लिए मैदान में निकल आएगा। तब वह शिवाजी को आसानी से पराजित कर पाएगा। परन्तु शिवाजी भी बहुत कुशाग्र बुद्धि के थे। अफजल खान की योजना उनके ध्यान में आ गई। मैदान में युद्ध करने से अफजल खान की ही विजय की संभावना रहेगी, यह वे अच्छी प्रकार से जानते थे। अतः उन्होंने प्रतापगढ़ जाने का निश्चय किया। जांवली के घने जंगलों में प्रतापगढ़ नाम का यह दुर्ग उन्होंने नया-नया बनवाया था। किसी प्रकार प्रतापगढ़ में अफजल खान को लाने तथा उससे युद्ध करने की शिवाजी ने योजना बनाई। वहाँ उन्होंने स्वप्न में माँ भवानी के दर्शन किए। माँ भवानी ने उन्हें आशीर्वाद दिया – “तुम्हारी विजय होगी।“ अफजल खान की इच्छा थी, कि शिवाजी प्रतापगढ़ से उतरकर मैदान में आ जाते। इस हेतु उसने अपना एक दूत शिवाजी के पास भेजा। दूत को उसने बहुत सी सूचनाएँ गुप्त रूप से दी थीं। दूत शिवाजी के पास पहुंचा। बड़े सौम्य शब्दों में वह कहने लगा – ‘खान साहब तो आपके पिताजी के बड़े मित्र हैं। वह किसी भी प्रकार आपका अहित नहीं करेंगे। आप चलें और उनसे मिलें। इसके उत्तर में शिवाजी ने एक बड़ा स्तुतिपूर्ण पत्र लिखा और वह अपने विशेष दूत के साथ खान के पास भेजा। शिवाजी ने उस पत्र में इस प्रकार लिखा –“आप तो मुझे चाचा के समान आदरणीय हैं। आप मुझे मेरे अपराधों के लिए क्षमा करें। उचित ये होगा, प्रतापगढ़ आकर आप मेरा उद्धार करें और मुझे बादशाह के सम्मुख ले जाएँ। शिवाजी के पत्र का नम्र एवं प्रीतियुक्त भाव देखकर खान उसके भुलावे में आ गया। शिवाजी का भेजा हुआ दूत बड़ा चतुर था। उसने खान के सामर्थ्य की भूरि-भूरि प्रशंसा की और शिवाजी की भीरुता की खिल्ली उड़ाई। खान बहुत प्रसन्न हुआ। अपने दल-बल के साथ खान जावली के जंगल में पहुंचा। प्रतापगढ़ दुर्ग के ठीक नीचे ही उसने अपना डेरा डाला। ये तय हुआ था, कि अफजल खान और शिवाजी मित्र की तरह मिलें। ये भी तय हुआ था, कि शिवाजी के बहुत डर जाने के कारण शिवाजी की एकान्त में भेंट होगी और दोनों के अंगरक्षक कुछ दूरी पर खड़े रहेंगे। एक ही दिन बचा था। दूसरे दिन भेंट होने वाली थी। फिर उस रात शिवाजी के मित्रों को नींद कैसे आती। नेताजी पालकर, तानाजी, कान्होजी और शिवाजी के एकनिष्ठ सेनापति अपने दुर्ग से नीचे उतरे और जंगल में छिप गए। वे आक्रमण के लिए सिद्ध थे। उन्हें यह सूचना प्राप्त थी, कि दुर्ग से सांकेतिक तोप की गर्जना सुनते ही उन्हें शत्रु सेना पर धावा बोलना है और उनका नाश करना है। रात समाप्त हुई। सूरज निकला। नित्य की भांति स्नानादि से निवृत होकर शिवाजी ने भगवान शंकर की पूजा की। उन्होंने सिर पर शिरस्त्राण पहना तथा देह पर लौह कवच धारण किया। उनकी कमर में भवानी तलवार लटक रही थी और बाजू में बाघनख भी था। भवानी माँ का स्मरण करते हुए शिवाजी दुर्ग से उतरे और अफजल खान से मिलने चले। भेंट का स्थान पहाड़ी के मध्य में था। अफजल खान के शिविर से भेंट का स्थान दिखाई नहीं पड़ता था। अफजल खान शामियाने में आया और शिवाजी की राह देखने लगा। शिवाजी को देखते ही वह उठा। क्षण भर के लिए दोनों की नजरें मिलीं, जैसे कि दो मित्र मिलने पर एक-दूसरे को आलिंगन में कस लेते हैं, उस प्रकार मिलने के लिए खान ने अपने दोनों लम्बे भीमकाय हाथ पसारे। शिवाजी भी हाथ फैलाए आगे बढ़े। अफजल खान शिवाजी को अपनी भुजाओं में जकड़कर मारना चाहता था। उसी क्षण शिवाजी ने बाघनख से अफजल खान के पेट पर ऐसा वार किया, कि खान की आँतें बाहर निकल आईं। खान ने भी वार किया, पर शिवाजी के लौह कवच ने उनकी रक्षा की। शिवाजी ने झपटकर अपनी तलवार चलाई। एक ही वार में खान का मस्तक लुढ़ककर धरती पर गिर गया। शिवाजी ने अपनी तलवार पर उस मुंड को रखा और वह दुर्ग पर चढ़ने लगे। उसी क्षण दुर्ग पर से तोपें चलीं और आकाश भेदी गर्जना करने लगीं। उधर खान के सिपाही सोच रहे थे, कि अब तक तो खान ने शिवाजी को पकड़ ही लिया होगा। तब एकाएक शिवाजी के सैनिक उन पर फुर्ती से चीते की तरह झपट पड़े। देवी तुलजा भवानी के अपमान का अब पूरा बदला लिया गया। खान की सेना परास्त हुई। शिवाजी पूर्णतय: विजयी हुए। उन्होंने अपनी माता को उपहार भेजा - कौन सा उपहार ? वह उपहार था - अफजल खान का सिर। शिवाजी की कीर्ति देश-विदेश तक पहुंची। अफजल खान वध की खबर सुनकर सब लोग शिवाजी को सराहने लगे। किन्तु बीजापुर के सुल्तान पर दारुण दुख के काले बादल छा गए। संयमी शिवाजी को इस विजय का उन्माद नहीं चढ़ा। योजनानुसार उन्होंने आस-पास के कई आदिलशाही दुर्ग जीत लिए। बीजापुर के सुल्तान ने इस बार एक नए सेनापति को चुना और सत्तर हजार की सेना देकर उसे शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सेनापति सिद्दी जौहर ने शिवाजी पर आक्रमण किया। शिवाजी पन्हालगढ़ दुर्ग में पहुंचे। आदिलशाह की सहायता के लिए अंग्रेज़ भी अपनी तोपें लेकर पहुंचे। सिद्दी जौहर ने पन्हालगढ़ पर घेरा डाला। धीरे-धीरे घेरा कसता रहा। शिवाजी ने सोचा था, कि वर्षा काल प्रारम्भ होते ही घेरा ढीला पड़ेगा, परन्तु वैसा नहीं हुआ। आदिलशाह ने दिल्ली से भी मदद मांगी। परिणामस्वरूप इसी समय दिल्ली के बादशाह ने अपने मामा शाइस्ता खान को एक लाख फौज देकर शिवाजी पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस संकट काल में शिवाजी की माताजी जीजाबाई ने शासन की बागडोर सुयोग्य व सुचारू रूप से संभाली। शिवाजी इस निष्कर्ष पर पहुंचे, कि किसी प्रकार इस घेरे से बाहर निकलना होगा। परन्तु यह होगा कैसे ! सिद्दी जौहर तो बड़ी दृढ़ता के साथ अपनी जिद पर अड़ा हुआ था। शिवाजी ने एक योजना बनाई। शिवाजी ने सिद्दी जौहर के पास एक दूत भेजकर यह कहलवाया - "मैं अपनी हार मानने के लिए तैयार हूँ। यदि आप कहें, तो कल मैं अपने किले आपके सुपुर्द किए देता हूँ। सुल्तान मेरे अपराधों को क्षमा करें- यही मैं चाहता हूँ।" शिवाजी ने घुटने टेक दिए हैं, यह समाचार सिद्दी जौहर के शिविर में फैलते ही पूरी रात सिद्दी जौहर के सैनिकों ने खुशियाँ मनाईं। शिवाजी का यह पत्र केवल उनको धोखा देने के लिए था, यह आशंका उन्हें कतई नहीं हुई। उस रात्रि को बादल भीषण रूप से गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी और मूसलाधार वर्षा हो रही थी। ठीक उसी समय शिवाजी अपने सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ के बाहर चुपके से निकल आए और विशालगढ़ दुर्ग की ओर रवाना हो गए। घेरे के पहरेदार अपने तंबुओं में बैठे सोच रहे थे, कि शिवाजी अपनी शरण में आ गया है, ऐसा मानकर वे सब मनोरंजन में मग्न थे। उन्हें यदि थोड़ी सी भी आशंका होती, तो शिवाजी का परास्त होना अटल था। इसलिए शिवाजी के सैनिक हर पग सतर्कता से उठा रहे थे। भवानी माता की उन पर कृपा थी। शिवाजी की छोटी सी सेना ने सफलतापूर्वक घेरा पार किया। मावला सैनिकों की वह छोटी टोली अपने शिवाजी को पालकी में बिठाकर तेजी से दौड़ रही थी। तभी एकाएक बिजली चमकी और वह सम्पूर्ण क्षेत्र प्रकाशमय हो गया। सिद्दी जौहर के गुप्तचर ने उस भागती हुई सेना-टोली को देख लिया। दौड़ते-हांफते वह सिद्दी जौहर के पास पहुंचा और उसे शत्रु के निकल जाने की सूचना दी। इस समाचार को सुनते ही सिद्दी जौहर के सिर पर मानो गाज गिरी। उसने अपने जामात सिद्दी मसूद को बुलवाया और उसे बड़ी भारी घुड़सवार सेना देकर तेजी से शिवाजी का पीछा करने का आदेश दिया। शिवाजी ने देखा, कि अब इन लोगों से बचना कठिन है। तब उन्होंने एक और योजना बनाई। वह झट से दूसरी पालकी में जा बैठे। वह पालकी एकदम भिन्न मार्ग पर दौड़ने लगी। शिवाजी की सेना में शिवाजी जैसा दिखने वाला एक आदमी था। वह शिवाजी जैसे कपड़े पहनकर पालकी में बैठ गया। सिद्दी मसूद उस पालकी को और उसके साथ के सैनिकों को पकड़कर उन्हें सिद्दी जौहर के पास ले गया। परन्तु जब कैदी की पूछताछ हुई, तब पता चला कि उसका नाम शिवाजी अवश्य था, परन्तु वह प्रतापगढ़ का रहने वाला एक नाई था। यह सुनकर सब लोग भौचक्के रह गए। आगबबूला होकर सिद्दी मसूद ने फिर से पीछा किया। तब तक शिवाजी अपनी सेना के साथ पच्चीस मील दूर चले गए थे। वह गजापुर की घाटी के पास आ गए थे। विशालगढ़ अब कुछ ही मील दूर था। सिद्दी मसूद के पाँच हजार सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। शिवाजी के पास बाजीप्रभु देशपाण्डे नाम के एक पराक्रमी सरदार थे। वह भीम जैसे बलवान थे। उन्होंने प्रार्थना की - "महाराज, आप आधी सेना लेकर विशालगढ़ सुरक्षित पहुँच जाएँ। आधी सेना लेकर मैं इस घाटी में शत्रु सेना का डटकर सामना करता हूँ। उसे आगे नहीं बढ्ने दूंगा। समुद्री लहरों के समान आदिलशाही सैनिकों के दल पंक्तिबद्ध होकर आ रहे थे। उस संकरे दर्रे में बाजीप्रभु उन्हें गाजर-मूली की तरह काट रहे थे। घमासान युद्ध हुआ। बाजी का पूरा शरीर घावों से भर गया। वह खून से लथपथ हो गए। परन्तु वह तनिक भी विचलित हुए बिना वीरता से शाम तक लड़ते रहे। बाजी के अधिकांश सैनिक मारे गए। और अब तो बाजी पर शत्रु ने ऐसा घातक प्रहार किया, कि वह मृतप्राय हो गए। तभी विशालगढ़ से चली तोप से पाँच संकेत हुए, जिसका अर्थ था, कि शिवाजी विशालगढ़ दुर्ग के भीतर सकुशल पहुँच गए थे। बाजीप्रभु ने उस संकेत ध्वनि को सुना, तब वह आनन्द-विभोर हो उठे। उन्होंने तलवार फेंक दी और शांत-चित्त से इहलोक यात्रा समाप्त की। उनके मुख पर कर्तव्य-पूर्ति का संतोष था। हुतात्मा के बलिदान से वह दर्रा पवित्र हो गया। फलस्वरूप उस समय से उसे लोग 'पावन खिंड' यानि पवित्र घाटी कहने लगे। बीजापुर के सुल्तान का शिवाजी पर फिर से आक्रमण करने का हौंसला नहीं रहा, परन्तु शिवाजी के राज्य पर शाइस्ता खान के रूप में दूसरा संकट आ धमका था। उस ओर ध्यान देना आवश्यक था। उस आपत्ति से छुटकारा पाने के लिए शिवाजी ने एक साहसपूर्ण योजना बनाई। वह रमजान का महीना था। शाइस्ता खान की सेना में अधिकांश अधिकारी रोजा रखते थे। वे दिनभर निराहार रहते थे। सहज ही रात में कुछ अत्यधिक भोजन करते थे और फिर बेखबर सोते थे। वह दिन औरंगजेब के वार्षिकोत्सव का था। उस रात दावतों का होना स्वाभाविक ही था। उस दिन दो हजार चुने हुए सैनिक लेकर शिवाजी राजगढ़ से नीचे उतरे। पुणे से दो मील दूर शिवाजी ने अपना पड़ाव डाला। पुणे के जिस लाल महल में शिवाजी का बचपन बीता था, उसी लाल महल में शाइस्ता खान ने अपना डेरा जमाया था। पुणे में और आसपास के विस्तीर्ण प्रदेश में शाइस्ता खान की एक लाख की विस्तृत सेना की छावनी लगी हुई थी। शिवाजी का बचपन का साथी बाबाजी एक छोटी सेना लेकर मुगल छावनी की ओर जा रहा था। उसके पीछे एक छोटा सा दल लेकर शिवाजी भी चल रहे थे। बाबाजी ने अपने दल सहित छावनी में प्रवेश किया। पहरेदारों ने जब उन्हें टोका और पूछा, तब बाबाजी बिना हिचकिचाए सहज भाव से बोले- “हम तो गश्ती फौज के सिपाही हैं। हमारा पहरा खत्म हुआ। अब हम अपने मुकाम पर जा रहे हैं।“ पहरेदारों को विश्वास हो गया। वे सब सैनिक छावनी में घुस गए। शिवाजी सीधे लालमहल के पिछले दरवाजे पर पहुंचे। वहाँ से वह रसोईघर में पहुंचे। वहाँ जो भी थे, उन्हें मौत के घाट उतार दिया। उसके बाद शाइस्ता खान के शयन कक्ष में पहुंचे। उधर अपने साथियों को लेकर शिवाजी भी भीतर आ गए। अब तो पूरा लालमहल दगा-दगा, शत्रु घुसा - की आवाज से गूंज उठा। शाइस्ता खान की पत्नियों ने खान को पर्दे के पीछे छिपा लिया। शिवाजी आगे बढ़े और उन्होंने अपनी तलवार चलाई। शाइस्ता खान की तीन उँगलियाँ कट गईं। खान खिड़की से कूदकर भागने लगा। अब तक मुगल सेना सजग हो गई। लालमहल के अन्दर अब पूरी तरह अफरा-तफरी मची हुई थी। सब चिल्ला रहे थे- 'मारो-काटो' । इसी भ्रमजाल का लाभ उठाते हुए शिवाजी के सैनिक भाग निकले। पूर्व नियोजित स्थान पर घोड़े तैयार खड़े थे। वे उन पर चढ़े और सकुशल सिंहगढ़ पहुंचे। इस घटना से शिवाजी के सब शत्रु घबरा गए। आज तक वे उसे केवल पहाड़ी चूहा कहते थे। अब उन्हें लगा, की शिवाजी के पास कुछ मायावी सामर्थ्य है। वह कोई असाधारण शक्ति है। पूरे समाचार को सुनते ही औरंगजेब शर्मसार हुआ। उसके फलस्वरूप उसने शाइस्ता खान की नियुक्ति बंगाल के सूबे में की। 
       स्वराज्य का निर्माण करना, सुसज्ज स्थल सेना और नौसेना रखना, राज्य में उत्तम शासन चलाना और सबसे बड़ी बात - इन क्रूर आक्रमणों का सामना करना – इन सब बातों के लिए विपुल धन की आवश्यकता थी। इतना अधिक धन प्राप्त करने का दूसरा तो कोई उपाय था नहीं। अतः आक्रमणकारियों से ही पैसा वसूल करने का शिवाजी ने निश्चय किया। उन्होंने औरंगजेब का धन-भण्डार लूटने की योजना बनाई। उन दिनों सूरत को कुबेर नगरी अर्थात् धनपतियों की नगरी कहा जाता था। शिवाजी ने वहाँ से अतुल धन-सम्पत्ति प्राप्त की। 

मुगल सम्राट के पंजों में
          अब तो औरंगजेब के लिए शिवाजी के कृत्य असहनीय हो गए। शिवाजी को समाप्त करने के लिए बड़ी भारी सेना लेकर वह स्वयं ही दक्षिण में आना चाहता था। परन्तु तथाकथित पहाड़ी चूहे के नाखून कितने तेज हैं, यह उसने देख लिया था। अतः उसने विचारपूर्वक एक योजना बनाई। सिंह को जीतने के लिए सिंह को ही भेजने का उसने निश्चय किया। इस कार्य के लिए उसने राजा जयसिंह को चुना। जयसिंह बड़ा योद्धा और वीर था। वह कुशल सेनापति भी था। वास्तव में इतनी बड़ी योग्यता का व्यक्ति विदेशियों की सेवा में ही अपने आपको धन्य मानता रहा, यह बड़ी लज्जा की बात है। विशाल सेना लेकर जयसिंह दक्षिण में आया। उसने बीजापुर के सुल्तान के साथ परस्पर सहायता की सन्धि कर ली। शिवाजी के साथ जयसिंह का युद्ध अनेक मोर्चों पर प्रारम्भ हुआ। एकाएक शिवाजी ने जयसिंह को पत्र लिख मित्र-सन्धि का प्रस्ताव भेजा, यहाँ तक कि शिवाजी स्वयं जयसिंह से मिले और उन्होंने दिल्लीपति से एकनिष्ठ रहने का उन्हें आश्वासन दिया। शिवाजी गिरि-कन्दराओं में स्वतन्त्र होकर विचरने वाले वनराज केसरी जैसे थे। वह बादशाह के सामने एकाएक क्यों झुक गए ! अनेक लोगों ने सोचा, कि शायद इसके पीछे कुछ गुप्त रहस्य है। सम्भव है, कि सेवा करने के बहाने शिवाजी दिल्ली जाएंगे और प्रत्यक्ष औरंगजेब पर आक्रमण कर उसे समाप्त करेंगे। कदाचित् उनका यह कृत्य उनके जीवन का बड़ा ही साहसपूर्ण और गूढ़ कूटनीति युक्त कार्य था। तदनुसार शिवाजी औरंगजेब से मिलने के लिए अपने राज्य से चले। उनका पुत्र सम्भाजी भी उनके साथ था। घर पर स्वराज्य में सबको बड़ी उत्कंठा थी, कि क्या होगा। मार्ग में स्थान-स्थान पर हिन्दू जनता ने उनका बड़ा स्वागत किया और उनके प्रति बड़ा आदरभाव प्रकट किया। शिवाजी आगरा पहुंचे। औरंगजेब भी कूटनीति में कम नहीं था। शिवाजी को उसने कभी निकट नहीं आने दिया। दरबार में भी उनका स्थान बहुत दूर रखा। इन सब बातों से शिवाजी की आशाओं पर पानी फिर गया। औरंगजेब ने शिवाजी का अपमान किया। शिवाजी को सम्मान के साथ रखने का औरंगजेब ने जयसिंह को वचन दिया था। वह उसने नहीं निभाया। शिवाजी बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने भी औरंगजेब का अपमान किया और वह दरबार छोड़कर चले गए। उसने शिवाजी को बन्दीगृह में ही मार देने की आज्ञा दे दी। शिवाजी ने भी अपना स्वाभाविक धैर्य नहीं खोया। बल्कि उस कठिन घड़ी में उनकी बुद्धि और हिम्मत – दोनों अधिक तेजी से काम करने लगीं। अचानक शिवाजी बीमार पड़ गए। उनका स्वास्थ्य अधिकाधिक बिगड़ने लगा। साथ में आए हुए मराठा सैनिकों को अपने प्रान्त में जाने की अनुमति देने के लिए उन्होंने औरंगजेब से प्रार्थना की। औरंगजेब को लगा कि यह तो और ठीक रहेगा। औरंगजेब ने अनुमति दे दी। स्वास्थ्य लाभ के लिए आशीर्वाद पाने के लिए शिवाजी फकीरों, साधु-संतों तथा वैरागियों के पास मिठाइयाँ भेजने लगे। नगर में अमीरों के पास शिवाजी तरह-तरह के नजराने भेजने लगे। इन सब बातों के लिए औरंगजेब की अनुमति प्राप्त थी। औरंगजेब जैसे चतुर आदमी के मन में भी शंका नहीं आई। 
        शिवाजी को मारने का दिन निश्चित था। ठीक उससे एक दिन पहले शिवाजी की बीमारी ने गम्भीर रूप धारण किया। यहाँ तक कि वह सुधबुध खो बैठे। नित्य की भांति मिठाई के पिटारे भीतर लाए गए। अब तक रुग्ण-शैया पर पड़े हुए शिवाजी एकदम उठे और पिटारे में जा बैठे। उनके पुत्र सम्भाजी को भी उसी तरह बिठाया गया। उसी क्षण नौकरों ने पिटारों पर ढक्कन चढ़ाए और उन्हें उठाकर चलने लगे। प्रतिदिन के अनुभव से पहरेदारों को विश्वास हो गया, कि पिटारों में मिठाई ही जाती है। उस दिन भी कोतवाल फौलाद खान ने कुछ पिटारों की जांच की। उनमें केवल मिठाई थी। सुदैव से जिन पिटारों में शिवाजी और सम्भाजी बैठे थे, उन पिटारों पर उसका हाथ नहीं पड़ा। माँ भवानी की कृपा, शिवाजी का चातुर्य और फौलाद खान का अहंकार, इनका ठीक मेल बैठा। भगवान् की इच्छा शिवाजी को जीवित रखने की थी। इसलिए फौलाद खान के कहा – ‘जाने दो।‘ कारागृह में शिवाजी के बिस्तर पर उनके मित्र हीरोजी ठीक उसी ढंग से सो गए। शिवाजी की शाही अंगूठी उसने अपने हाथों में पहन ली थी। उनकी पूरी देह दुशाले में ढकी हुई थी। परन्तु हाथ उसने जान-बूझकर बाहर निकाल रखा था। निष्पाप मुद्रा धारण किए हुए मदारी मेहतर नाम का लड़का उनके पैर दबा रहा था। फौलाद खान बीच-बीच में आकर झाँकता था और शिवाजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछता था। दूसरे दिन हीरोजी शाम को उस बिस्तरे से उठा और उसने उस बिस्तर पर रजाई-तकिया आदि की ठीक ऐसी रचना की, ऐसा लगता था, जैसे कि कोई आदमी सोया हुआ है। उसने अपने हमेशा के कपड़े पहने और बाहर आया। उसने पहरेदार से हाथ जोड़कर कहा- ‘आवाज कम करो, महाराज की तबीयत ज्यादा खराब है। अभी-अभी झपकी लगी है। मैं दवाई लेने जा रहा हूँ।‘ इस प्रकार हीरोजी बाहर निकल आया। कुछ समय बाद मदारी भी इसी ढंग से वहाँ से खिसका। बिस्तर पर ओढ़ने के बने हुए शिवाजी सोए हुए थे और बाहर हाथ में नंगी तलवारें लिए पहरेदार कड़ा पहरा दे रहे थे। सुबह हुई। शिवाजी के सिर कलम के लिए वही दिन निश्चित किया गया था। फौलाद खान भीतर आया। वहाँ पर विचित्र शान्ति विद्यमान थी। वह शंकित हुआ। आगे बढ़कर उसने देखा, कि शिवाजी तो सोए हुए हैं। एक क्षण के लिए वह आश्वस्त हुआ, कि वहाँ सब ठीक है। परन्तु थोड़ी ही देर में उसे ध्यान आया, कि यहाँ कोई हलचल नहीं है। शिवाजी कहीं मर न गया हो। उसने ओढ़ना हटाया और देखा कि वहाँ तो केवल रजाई और तकिया ही है। काटो तो खून नहीं, उसकी ये हालत हो गई। फौलाद खान की यह स्थिति थी। औरंगजेब की क्या स्थिति हुई होगी, इसकी कल्पना कर सकते हैं। औरंगजेब ने उसी क्षण शिवाजी को पकड़ने के लिए अपनी सेना को सब दिशाओं में भेजा। शिवाजी और सम्भाजी के लिए पूर्व नियोजित स्थान पर घोड़े तैयार थे। वे पिटारों में से निकले, घोड़े पर सवार हुए और दक्षिण की ओर चल पड़े। रास्ते में समर्थ रामदास स्वामी के मठों का उन्हें बड़ा उपयोग हुआ। अन्त में साधु-सन्यासी का वेश बनाकर शिवाजी राजगढ़ पहुंचे। क्षण भर के लिए उनकी माता जीजाबाई तब उन्हें पहचान न सकीं और जब उन्होंने पहचाना, तब उन्होंने अपने महान सुपुत्र को अपने गले लगा लिया। उनकी आँखों से आनंदाश्रु बहने लगे। माँ-बेटे का यह अलौकिक मिलन था। 
       भारत के दक्षिण में शिवाजी के जो शत्रु थे, उनके कानों तक जब शिवाजी के आगरा से मुक्त होने का समाचार पहुंचा, तब वे बहुत घबराए। पूरे देश में शिवाजी की कीर्ति फैल गई। शिवाजी ने अपने युग के सबसे बड़े कपटी व क्रूर राजनीतिज्ञ औरंगजेब की आँखों में धूल झोंकी थी। उसकी नाक के नीचे से, उसकी राजधानी में से नंगी तलवारें हाथ में लिए जहां रात-दिन पहरेदारों का कड़ा पहरा था, वहाँ से शिवाजी मुक्त हुए थे। चारों तरफ दौड़ाए हुए हजारों मुगल सैनिकों को चकमा देकर शिवाजी ने एक हजार मील का रास्ता तय किया। ऐसा साहस, आत्मविश्वास और चातुर्य कोई महामानव ही कर सकता है। सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिए प्रेरणादायक हिन्दू साम्राज्य की शिवाजी ने स्थापना की। परन्तु अभी तक शास्त्रों के अनुसार उनका विधिवत सिंहासन रोहण नहीं हुआ था। इसलिए कुछ लोग उन्हें राजा मानने से इन्कार करते थे। शिवाजी के जीवन की इस त्रुटि को पूर्ण करने के लिए काशी के एक विद्वान पंडित अग्रसर हुए। उनका नाम गागाभट्ट था। उन्होंने यथाशास्त्र शिवाजी का राज्याभिषेक किया। यह महत्वपूर्ण घटना सन् 1674 में सम्पन्न हुई। उस समय शिवाजी की आयु 44 वर्ष की थी। दुर्गम एवं सर्वश्रेष्ठ रायगढ़ दुर्ग को राजधानी बनाया गया। अपनी पूजनीय माताजी के चरण स्पर्श कर तथा उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर शिवाजी रत्नजड़ित स्वर्ण सिंहासन पर आसीन हुए। गागाभट्ट ने उनपर स्वर्ण छत्र का राजचिन्ह संभाला और उन्हें छत्रपति घोषित किया। सुहागिनों ने उनकी आरती उतारी। साधु-संतों ने उन्हें आशीर्वाद दिए। इस उत्सव में भाग लेने के लिए दूर-दूर से हजारों लोग आए थे। वे आनन्द-विभोर हो उठे। मुक्त कण्ठ से वे जय-जयकार करने लगे – ‘छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जी की जय।‘ रायगढ़ दुर्ग से तोपों की सलामी हुई। बीजापुर के सुल्तान ने तथा अंग्रेजों ने शिवाजी को स्वतन्त्र राजा के रूप में मान्यता दी और कीमती नजराने भेजे। इस महान् घटना को देख समर्थ रामदास स्वामी के मन में जो आनन्द की लहरें उठने लगीं, वह काव्य रूप में प्रकट हुईं- “इस भूमि का उद्धार हुआ है। धर्म का उद्धार हुआ है। आँगन में स्वराज्य का उदय हुआ है।“
    केवल शत्रु को पराजित कर स्वराज्य की प्रस्थापना करने में शिवाजी को संतोष नहीं था। अपनी समस्त प्रजा को सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति हो, इस हेतु उन्होंने तरह-तरह के सुधार किए। अपनी प्रजा को वह देवता-स्वरूप मानते थे। उनका कोई भी कष्ट शिवाजी लिए असहनीय था। शत्रुओं को दबाने के लिए उनके सैनिकों को दूर-दूर तक जाना पड़ता था। अपने सैनिकों को शिवाजी ने जो आज्ञा दी थी, वह उनकी प्रजाहित दक्षता का परिचायक है। रास्ते में जो जनता होगी, उसे किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना चाहिए। खेतों में जो फसल खड़ी होगी, उसके पत्ते तक भी किसी को छूने नहीं चाहिएं। इस आज्ञा का उल्लंघन करने वाले को शिवाजी हमेशा बहुत कड़ी सजा देते थे। गाँव के भोले-भाले किसानों की दृष्टि में शिवाजी प्रेम-स्वरूप थे। उस समय किसान धनी जमींदारों के अन्याय से त्रस्त थे। शिवाजी ने दुष्ट जमींदारों से जमीनें छीन लीं और किसानों को बाँट दीं। उस समय हिन्दू समाज में आज से भी अधिक छुआछूत का रोग फैला हुआ था। समाज ने कुछ अपने ही भाइयों को अछूत समझकर उन्हें अपने ही समाज से अलग कर दिया था। परन्तु शिवाजी का उन सबके प्रति अगाध प्रेम था। शिवाजी ने उन्हें अपनी सेना में भर्ती करने के लिए आमंत्रित किया और उनकी योग्यतानुसार उन्हें उच्च पद तथा अधिकार भी प्रदान किए। उन सबने शिवाजी की निष्ठापूर्वक सेवा की। शिवाजी का संदेश था- "एक ही धर्म के अनुयाइयों को आपस में कभी ईर्ष्या व भेदभाव नहीं करना चाहिए। द्वेष नहीं रखना चाहिए।" उसका प्रत्यक्ष आदर्श उन्होंने स्वयं प्रस्तुत किया। अपनी प्रजा को शिवाजी उत्तम शिक्षा देना चाहते थे। संस्कृत भाषा को अपने राज्य में दिव्य स्थान देने के लिए 'संस्कृत' शब्द प्रचलित किए। उन दिनों अनेक हिन्दू जबर्दस्ती से मुसलमान बनाए जाते थे। वे फिर से हिन्दू बनना चाहते थे, किन्तु हिन्दू समाज ऐसे धर्मांतरितों को प्रवेश नहीं देता था। शिवाजी को यह ठीक नहीं लगा। अतः जो भी पूर्ववत अपने हिन्दू धर्म में आना चाहते थे, शिवाजी ने उनका पुनः शुद्धीकरण किया। अनेक लोग समुद्र-यात्रा को निषिद्ध मानते थे। इस मूर्खता को शिवाजी ने समाप्त किया। उन्होंने समुद्री युद्ध किए और कई जल-दुर्ग बनवाए। भ्रष्टाचारी और स्वदेश-द्रोही लोगों पर शिवाजी अत्यन्त क्रोधित होते थे। अपनी मातृभूमि को धोखा देने वालों का वह बड़ा तिरस्कार करते थे। स्वयं का पुत्र भी यदि देश के विरुद्ध काम करता, तो वह उसे अवश्य दण्ड देते। शिवाजी के रूप में न्याय ही साकार हुआ था। अपने सम्बन्धियों के लिए भी उन्होंने कभी पक्षपात नहीं किया। सद्गुणी व कर्तृत्ववान लोगों को वह सदा प्रोत्साहन देते थे। इसका परिणाम यह हुआ, कि उनके राज्य में गुणवानों की उन्नति हुई और वे ही उच्च पदों पर आरूढ़ हुए। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में शिवाजी ने आवश्यक न्यायोचित परिवर्तन किए। शिवाजी के स्वराज्य निर्माण की यह अत्यन्त रोमांचकारी अभिव्यक्ति है। इसे पढ़ते हुए हमें बार-बार ऐसा प्रतीत होता है, कि हमें शिवाजी का आदर्श सदा अपने सम्मुख रखना चाहिए। शिवाजी ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए अपार कष्ट सहे। उन्होंने कभी अपने प्राणों की परवाह नहीं की। तीन सौ वर्षों से भी अधिक समय बीत जाने पर आज भी उस महापुरुष के स्मृति मात्र से नव प्रेरणा व नव ऊर्जा जागृत होती है।   
छत्रपति शिवरायांचा
निनाद जय जयकार !   निनाद जय जयकार !
छत्रपति शिवाजी महाराज की जय !

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