Saturday, July 25, 2020

बाबरी ढांचा ध्वंस : राम और शरद

बाबरी ढांचा ध्वंस : राम और शरद
यह नब्बे के दशक की एक हृदय विदारक घटना प्रतीत होती है। मैं जगतसिंहपुर में था। राम की उम्र लगभग 22 वर्ष और शरद 20 वर्ष के। मेरी आयु उस समय यही होगी। पहली बार, कारसेवक अयोध्या में राम जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए अयोध्या जा रहे थे। संघ के कार्यकर्ता कारसेवकों को भेजने में सहायता कर रहे थे। हमारे नहीं जाने का कारण यही था की हमें संघ ने अनुमति नहीं दी थी। हम केवल कार्यकर्ताओं को भेजने में सहयोग कर रहे थे।
बात लगभग अक्टूबर के अंतिम सप्ताह की होगी। कारसेवा के लिए देश भर से कारसेवक अयोध्या जा रहे थे। उसी क्रम में कोलकाता के बड़ा बाजार की एक शाखा से दो भाई उस दिन कारसेवक के रूप में अयोध्या जाने के लिए निकले। उस समय दक्षिण बंगाल के प्रांत प्रचारक माननीय सुनील पद गोस्वामी जी ने रेलवे स्टेशन पर आकर  कारसेवकों को विदा किया। जैसे ही उन्होंने बड़ा बाजार के उन दोनों भाइयों को देखा उन्होंने उनके पिता से पूछा- "क्या आप उन दोनों को जाने की अनुमति दे दी है?" उन्होंने कहा कि मैंने बड़े को अनुमति दी है, परन्तु छोटा भी जाना चाहता है और मेरा छोटे भाई का दो बेटे भी आ गये हैं, जाने दो..
उस समय इक्का दुक्का टीवी था। न के बराबर। समाचार प्राप्त करने का एकमात्र माध्यम रेडियो ही था। अन्यथा दूरभाष से घटना की जानकारी लेना पड़ता था। जिस दिन कारसेवकों  पर अंधाधुंध गोली चलाकर हत्या की गई थी उस समय राम कोठारी और शरद कोठारी दोनो भाई सबसे आगे थे। क्योंकि दोनों भाइयों ने गुम्बज पर चढ़कर भगवा पताका फहरा दिया था। आश्चर्य कि बात है  मुख्यमंत्री ने कहा था कि "कोई परिंदा भी जन्मभूमि की परिसर में घुस नहीं पायेगा।" इसलिए उन्होंने जन्मभूमि परिसर में 30, 000 जवान तैनात किए थे। उस में  घुसना आसान नहीं था, फिर भी 5, 000 कारसेवकों ने पुलिस और अर्ध सैन्य बल के आँखों में धूल झोंक कर जय श्रीराम के नारे लगते हुए  जन्मस्थान में प्रवेश कर गए।
यह समाचार कोलकाता कार्यालय पहुंचा। प्रारंभ में आधा अधूरी सूचना मिली। फिर बाद में मृत होने का सूचना आयी। अब उनके परिवार को खबर देना था। कौन जाएगा? कौन घर जाकर उनके माता पिता को इस खबर को पहुंचाएगा?
कोई भी प्रस्तुत हुए नहीं, क्योंकि यह इतना  सरल नहीं था। अंततोगत्वा सुनील दा स्वयं गये। बड़ा बाजार में विनय रस्तोगी जी के घर में संघ कार्यालय था। सुनील दा कोठारी परिवार को सीधे न जाते हुए उनके घर के पास स्थित कार्यालय गए और वहां हीरालाल कोठारी जी को बुलाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने पाँच या सात अनुभवी स्वयंसेवकों को भी बुला लिया। सुनील दा ने बुलाया सुनते ही हीरालाल जी कार्यालय आ गए। अब बातचीत प्रारंभ हुई। विषय लड़कों की बारे में थी। क्या अयोध्या से कोई नई खबर आई? क्या सब अच्छा है?
हीरालाल जी इस खबर जानने की काफी इक्छुक थे। उन्होंने देखा कि सभी गंभीर थे। किसी के मुख से कोई बात नहीं थी। "सुनील दा भी बोलने की स्थिति में नहीं थे, फिर भी वे बोले "मुलायम सिंह यादव सरकार ने कारसेवकों के उपर गोली चलाई है। मैंने सुना है कि राम और शरद को भी गोली लगी है, दोनों घायल हैं।" इतने सुनते ही हीरालाल जी अपनी स्थान से उठे, सुनीलदा के पास आ गए और सुनील दा का हाथ पकड़ लिये और रो पड़े ..फिर थोड़े देर में अपने को संभालते हुए बोले "सुनील दा! मेरे दोनों बेटा चला गया...."
यह दुःखद प्रसंग आज भी सुनील दा को हिला देता है।
तब हीरालाल जी रोते हुए  कहते हैं-"सुनील दा! मेरे दो बेटों की बलिदान हो गई। क्या राम मंदिर बनेगा?" अन्यथा यह बलिदान व्यर्थ हो जाएगा।
इस कहानी को बताना बहुत लंबा होगा।
माँ को कैसे बताये...उनकी एकमात्र बहन पूर्णिमा दिसंबर के पहले सप्ताह में विवाह  होनी थी। (अब माता पिता का निधन हो गया है। उनके एकमात्र बहन पूर्णिमा जीवित है। राम और शरत के चित्र पकड़ने वाली महिला पूर्णिमा ही है।) उस समय केंद्रापड़ा के एक अन्य स्वयंसेवक (संग्राम केशरी महापात्र) को भी पेट में गोली लगी थी। यह मैंने राष्ट्रदीप से पढ़ा था।
एक दूसरे विषय अपनी बात रखकर मैं इस बात को पूरा करूँगा। ठीक दो वर्ष उपरान्त अयोध्या में दोबारा कारसेवा हुई। विवादास्पद ढांचे को कारसेवकों ने तोड़ दिया। संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। प्रतिबंध हटने के पश्चात् उत्तर प्रदेश में प्रांत प्रचारकों की एक बैठक हुई। बैठक के पश्चात् सभी प्रांत प्रचारकों ने राम जन्मभूमि देखने गए। गाइड उन्हें सम्पूर्ण विवरण बता रहे थे। जब गाइड ने कहा कि राम कोठारी और शरद कोठारी को यहां गोली मारी गई है, तो हरिहर दा ने मिट्टी पकड़ ली और बैठ गये, बच्चे जैसे रोने लगे। उन्हे देखते हुए अन्य प्रांत प्रचारकों के आँख भी नम गयी। यह शोक स्वाभाविक था...क्योंकि राम और शरद केवल हीरालाल जी के ही नहीं हैं...संघ के लिए स्वयंसेवक पुत्रों से अधिक अनमोल हैं...।

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