दिनांक - 13 मई 2022, शुक्रावर
माह - वैशाख
पक्ष - शुक्ल
प्रारंभ - 09:15 पूर्वाह्न, 22 मई
समाप्त - 06:42 पूर्वाह्न, 23 मई
कथा -
अर्जुन ने संयम और श्रद्धा से युक्त कथा को सुनकर श्रीकृष्ण से कहा- हे मधुसूदन! वैशाख माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसके उपवास को करने का क्या विधान है? कृपा कर यह सब मुझे विस्तारपूर्वक बताइये।
श्रीकृष्ण ने कहा- हे अर्जुन! मैं एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ, जिसे महर्षि वशिष्ठजी ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा था। उसे मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यानपूर्वक श्रवण करो- एक बार की बात है, श्रीरामजी ने महर्षि वशिष्ठ से कहा- हे गुरुश्रेष्ठ! मैंने जनकनन्दिनी सीताजी के वियोग में बहुत कष्ट भोगे हैं, अतः मेरे कष्टों का नाश किस प्रकार होगा? आप मुझे कोई ऐसा व्रत बताने की कृपा करें, जिससे मेरे सभी पाप और कष्ट नष्ट हो जाएँ।
महर्षि वशिष्ठ ने कहा- हे श्रीराम! आपने बहुत उत्तम प्रश्न किया है। आपकी बुद्धि अत्यन्त कुशाग्र और पवित्र है। आपके नाम के स्मरण मात्र से ही मनुष्य पवित्र हो जाता है। आपने लोकहित में यह बड़ा ही उत्तम् प्रश्न किया है। मैं आपको एक एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनाता हूँ- वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम मोहिनी एकादशी है। इस एकादशी का उपवास करने से मनुष्य के सभी पाप तथा क्लेश नष्ट हो जाते हैं। इस उपवास के प्रभाव से मनुष्य मोह के जाल से मुक्त हो जाता है। अतः हे राम! दुखी मनुष्य को इस एकादशी का उपवास अवश्य ही करना चाहिये। इस व्रत के करने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
अब आप इसकी कथा को श्रद्धापूर्वक सुनिये- प्राचीन समय में सरस्वती नदी के किनारे भद्रावती नाम की एक नगरी बसी हुई थी। उस नगरी में द्युतिमान नामक राजा राज्य करता था। उसी नगरी में एक वैश्य रहता था, जो धन-धान्य से पूर्ण था। उसका नाम धनपाल था। वह अत्यन्त धर्मात्मा तथा नारायण-भक्त था। उसने नगर में अनेक भोजनालय, प्याऊ, कुएँ, तालाब, धर्मशालाएं आदि बनवाये, सड़को के किनारे आम, जामुन, नीम आदि के वृक्ष लगवाए, जिससे पथिकों को सुख मिले। उस वैश्य के पाँच पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़ा पुत्र अत्यन्त पापी व दुष्ट था। वह वेश्याओं और दुष्टों की संगति करता था। इससे जो समय बचता था, उसे वह जुआ खेलने में व्यतीत करता था। वह बड़ा ही अधम था और देवता, पितृ आदि किसी को भी नहीं मानता था। अपने पिता का अधिकांश धन वह बुरे व्यसनों में ही उड़ाया करता था। मांस का भक्षण करना उसका नित्य कर्म था। जब काफी समझाने-बुझाने पर भी वह सीधे रास्ते पर नहीं आया तो दुखी होकर उसके पिता, भाइयों तथा कुटुम्बियों ने उसे घर से निकाल दिया और उसकी निन्दा करने लगे। घर से निकलने के बाद वह अपने आभूषणों तथा वस्त्रों को बेच-बेचकर अपना गुजारा करने लगा।
धन नष्ट हो जाने पर वेश्याओं तथा उसके दुष्ट साथियों ने भी उसका साथ छोड़ दिया। जब वह भूख-प्यास से व्यथित हो गया तो उसने चोरी करने का विचार किया और रात्रि में चोरी करके अपना पेट पालने लगा, लेकिन एक दिन वह पकड़ा गया, किन्तु सिपाहियों ने वैश्य का पुत्र जानकर छोड़ दिया। जब वह दूसरी बार पुनः पकड़ा गया, तब सिपाहियों ने भी उसका कोई लिहाज नहीं किया और राजा के सामने प्रस्तुत करके उसे सारी बात बताई। तब राजा ने उसे कारागार में डलवा दिया। कारागार में राजा के आदेश से उसे बहुत कष्ट दिए गये और अन्त में उसे नगर छोड़ने के लिए कहा गया। दुखी होकर उसे नगर छोड़ना पड़ा।
अब वह जंगल में पशु-पक्षियों को मारकर पेट भरने लगा। फिर बहेलिया बन गया और धनुष-बाण से जंगल के निरीह जीवों को मार-मारकर खाने और बेचने लगा। एक बार वह भूख और प्यास से व्याकुल होकर भोजन की खोज में निकला और कौटिन्य मुनि के आश्रम में जा पहुँचा।
इन दिनों वैशाख का महीना था। कौटिन्य मुनि गंगा स्नान करके आये थे। उनके भीगे वस्त्रों की छींटें मात्र से इस पापी को कुछ सद्बुद्धि प्राप्त हुई। वह अधम, ऋषि के पास जाकर हाथ जोड़कर कहने लगा- हे महात्मा! मैंने अपने जीवन में अनेक पाप किये हैं, कृपा कर आप उन पापों से छूटने का कोई साधारण और बिना धन का उपाय बतलाइये।
ऋषि ने कहा- तू ध्यान देकर सुन- वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत कर। इस एकादशी का नाम मोहिनी है। इसका उपवास करने से तेरे सभी पाप नष्ट हो जाएंगे।
ऋषि के वचनों को सुन वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनकी बतलायी हुई विधि के अनुसार उसने मोहिनी एकादशी का व्रत किया।
हे श्रीराम! इस व्रत के प्रभाव से उसके सभी पाप नष्ट हो गये और अन्त में वह गरुड़ पर सवार हो विष्णुलोक को गया। संसार में इस व्रत से उत्तम दूसरा कोई व्रत नहीं है। इसके माहात्म्य के श्रवण व पठन से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य एक सहस्र गौदान के पुण्य के बराबर है।
कथा सार
प्राणी को सदैव सन्तों का संग करना चाहिये। सन्तों की संगत से मनुष्य को न केवल सद्बुद्धि प्राप्त होती है, अपितु उसके जीवन का उद्धार हो जाता है। पापियों की संगत प्राणी को नरक में ले जाती है।
Mohini Ekadashi
Date - 13 May 2022, Friday
Month - Vaishakh
side - shukla
Starts - 09:15 AM, May 22
Ends - 06:42 am, May 23
Story -
Arjuna, after listening to the story with restraint and reverence, said to Shri Krishna - O Madhusudan! What is the name of Ekadashi of Shukla Paksha of Vaishakh month and what is the law of observing his fast? Please tell me all this in detail.
Shri Krishna said - O Arjuna! I narrate a legend, which was told by Maharishi Vashishtha to Shri Ramchandraji. I tell him to you, listen carefully - once upon a time, Shri Ram said to Maharishi Vashistha - O Gurushrestha! I have suffered a lot in the separation of Janaknandini Sita, so how will my sufferings be eradicated? Please tell me such a fast by which all my sins and troubles are destroyed.
Maharishi Vashistha said - Oh Shri Ram! You have asked a very good question. Your intellect is very sharp and pure. The mere remembrance of your name makes a man pure. You have asked this very good question in public interest. Let me tell you the significance of Ekadashi fasting - Mohini Ekadashi is the name of Ekadashi of Shukla Paksha of Vaishakh month. By fasting on this Ekadashi, all the sins and troubles of a person are destroyed. Due to the effect of this fast, a person becomes free from the trap of attachment. Therefore, O Rama! A sad person must fast on this Ekadashi. By observing this fast, all the sins of a person are destroyed.
Now listen to its story with reverence - in ancient times a city named Bhadravati was settled on the banks of Saraswati river. A king named Dyutiman ruled in that city. There lived a Vaishya in the same city, who was full of wealth. His name was Dhanpal. He was very pious and a devotee of Narayana. He built many restaurants, pots, wells, ponds, dharamshalas etc. in the city, planted mango, jamun, neem trees on the side of the road, so that the wanderers get happiness. That Vaishya had five sons, of whom the eldest son was very sinful and wicked. He used to associate with prostitutes and wicked people. The time he saved was spent in gambling. He was very low and did not believe in any deity, father etc. He used to spend most of his father's wealth in bad addictions. Eating meat was his daily practice. When he did not come on the right path even after much persuasion, his father, brothers and relatives, being sad, threw him out of the house and started condemning him. After leaving the house, he started earning his living by selling his jewelery and clothes.
When his wealth was destroyed, the prostitutes and his wicked companions also left him. When he became distressed with hunger and thirst, he thought of stealing and started stealing in the night to feed himself, but one day he was caught, but the soldiers left him knowing the son of Vaishya. When he was caught again for the second time, the soldiers also did not pay any attention to him and presented him in front of the king and told him everything. Then the king put him in the prison. Due to the orders of the king in the prison, he was given a lot of suffering and in the end he was asked to leave the city. Unhappy, he had to leave the city.
Now he started filling his stomach by killing animals and birds in the forest. Then he became a fowler and started eating and selling by killing innocent creatures of the forest with his bow and arrow. Once, distraught with hunger and thirst, he went out in search of food and reached the hermitage of Kautinya Muni.
These days were the month of Vaishakh. Kautinya Muni had come after taking a bath in the Ganges. This sinner got some wisdom from the mere splatter of his soaked clothes. He went to the inferior, sage with folded hands and said - O Mahatma! I have committed many sins in my life, please tell me any simple and no money way to get rid of those sins.
The sage said – listen carefully and observe fast on Ekadashi of Shukla Paksha of Vaishakh month. The name of this Ekadashi is Mohini. By fasting it all your sins will be destroyed.
He was very pleased to hear the words of the sage and he observed the fast of Mohini Ekadashi according to his method.
Oh Shri Ram! Due to the effect of this fast, all his sins were destroyed and in the end he went to Vishnuloka riding on Garuda. There is no other fast in the world better than this fast. The merit that one gets by hearing and reading its greatness is equal to the virtue of donating a thousand cows.
Synopsis
One should always be in the company of saints. By the company of saints man not only attains good intellect, but his life gets saved. The company of sinners takes the creature to hell.
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