17 जून/बलिदान-दिवस
*खूब लड़ी मर्दानी वह तो....*
भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था। प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उसे घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनन्द आता था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन था। अतः सात वर्ष की अवस्था में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव से हो गया। विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं। उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो गया। दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे। युवावस्था के सुख देखने से पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं।
उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर उनके परलोक सिधारते ही अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी के समान गरज उठी - मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
अंग्रेजों ने रानी के ही एक सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़ आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
इधर देश में जगह-जगह सेना में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी गोटियाँ बैठा रहे थे।
जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी कुमुक मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
कालपी से वह ग्वालियर आयीं। वहाँ 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया जाता है।
#हरदिनपावन
17 June
* I fought a lot like a man ...
With the coming of English power in India, there was a revolt against them in every village; But due to personal or very small level, these struggles did not succeed. The first organized struggle against the British took place in 1857. In this, the name of Rani Laxmibai of Jhansi is prominent among the heroes who with their courage shattered the teeth of English generals.
Born on 19 November 1835 in Varanasi, Laxmibai's childhood name was Manu. Lovingly, people also called her Manikarnika and Chhabili. His father was Mr. Moropant Tambe and mother Mrs. Bhagirathi Bai. From the stage of playing with dolls, he enjoyed a lot of manners like horse riding, archery, swordplay, warfare. Nana Saheb Peshwa was among his childhood companions.
Child marriage was prevalent in those days. Hence, at the age of seven years, Manu was married to Gangadharrao, the Maharaja of Jhansi. After marriage, she was called Lakshmibai. Their married life was not pleasant. When she was 18, the king died. Sadly, they were childless even then. The queen became a widow before seeing the pleasures of youth.
In those days, the British rulers used to capture such jagirs and states without an heir. In this fear, the king accepted Damodar Rao as an adopted son in front of the British rule and the leading people of his kingdom before his death; But as soon as his other dreams came out, the British saliva started dripping. He refused to give recognition to Damodar Rao and declared the Jhansi state to be merged with the British rule. On hearing this, Laxmibai thundered like a lioness - I will not give my Jhansi.
The British revolted a leader of the queen, Sadashiva. He took over the Karora Fort, 50 km from Jhansi; But the queen defeated him. Meanwhile, the Diwan of Orchha climbed over the Nathan Khan Jhansi. He had an army of sixty thousand; But the queen, with her valor and might, also showed her stars in the day.
Here in the country, rebellions started against the British in the army. Indian soldiers working in the army based in Jhansi also started to selectively kill the British officers. The queen now fully took over the reins of the kingdom; But the British were sitting there with new pieces.
General Hugh Rose attacked Jhansi with a large army. The queen landed on the battlefield on March 22, 1858, with Damodar Rao on her back. The war lasted for eight days; But the British could not move forward. On the ninth day Tatya Tope with her twenty thousand soldiers arrived to assist the queen; But the British also bought a new kumuk. The queen retreated and reached Kalpi.
She came to Gwalior from Kalpi. There, on June 17, 1858, he found heroism in the war with Brigadier Smith. Baba Gangadas, a confidant of the queen, set her body in her hut and set it on fire. The queen lived only for 22 years and seven months. But she is always remembered by singing "She fought very well, she was the queen of Jhansi".
#Hardinpavan
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