उमराव सिंह गुर्जर - १८५७ (1857) की क्रान्ति के एक महान नायक
कैप्टन उमराव सिंह - विक्टोरिया क्रास से सम्मानित
टिकैत उमराव सिंह - ये झारखण्ड के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। वर्ष 1857 ई. की क्रांति में उमराव सिंह और उनके छोटे भाई घासी सिंह ने बेमिसाल वीरता का प्रदर्शन किया था। अंग्रेज़ सेना को राँची पर कब्जा करने से रोकने में टिकैत उमराव सिंह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। झारखण्ड के इतिहास में प्रसिद्ध टिकैत उमराव सिंह का जन्म ओरमांझी प्रखंड के खटंगा गाँव में हुआ था था। ये बारह गाँव के ज़मींदार हुआ करते थे। टिकैत उमराव सिंह हमेशा से शोषण तथा अत्याचार के ख़िलाफ़ रहे और इसके विरुद्ध आवाज़ बुलंद की। इन्होंने 1857 ई. के विद्रोह को पूरे छोटा नागपुर में फैलाया और साथ ही विद्रोहियों के बीच तालमेल बिठाया। इनके द्वारा चुटुपालू घाटी और चारू घाटी में प्रवेश पर रोक । टिकैत उमराव सिंह को चुटुपालू घाटी में उनके दीवान शेख़ भिखारी के साथ एक वट वृक्ष की डाली पर फाँसी दे दी गई थी। आज भी झारखण्ड में उन्हें एक जनप्रिय नायक के रूप में याद किया जाता है।
टिकैत उमराव सिंह

टिकैत उमराव सिंह झारखण्ड के प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे। वर्ष 1857 ई. की क्रांति में उमराव सिंह और उनके छोटे भाई घासी सिंह ने बेमिसाल वीरता का प्रदर्शन किया था। अंग्रेज़ सेना को राँची पर कब्जा करने से रोकने में टिकैत उमराव सिंह ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।[1]
झारखण्ड के इतिहास में प्रसिद्ध टिकैत उमराव सिंह का जन्म ओरमांझी प्रखंड के खटंगा गाँव में हुआ था था।
ये बारह गाँव के ज़मींदार हुआ करते थे। अंग्रेज़ों ने इनके घर को ढाह दिया था।
टिकैत उमराव सिंह हमेशा से शोषण तथा अत्याचार के ख़िलाफ़ रहे और इसके विरुद्ध आवाज़ बुलंद की।
इन्होंने 1857 ई. के विद्रोह को पूरे छोटा नागपुर में फैलाया और साथ ही विद्रोहितयों के बीच तालमेल बिठाया। चुटुपाल घाटी के फलों को तोड़वा दिया तथा वृक्षों को काटकर राँची आने वाला रास्ता रोक दिया था।
टिकैत उमराव सिंह को चुटुपालू घाटी में उनके दीवान शेख़ भिखारी के साथ एक वट वृक्ष पर एक ही डाली पर फाँसी दे दी गई थी।
आज भी झारखण्ड में उन्हें एक जनप्रिय नायक के रूप में याद किया जाता है।
1857 की जंग ए आजादी में लड़ने वाले शेख़ भिखारी का जन्म 1831 ई में रांची ज़िला के होक्टे गांव में एक बुनकर ख़ानदान में हुआ था. बचपन से वे अपना खानदानी पेशा मोटे कपड़े तैयार करते और हाट-बाजार में बेचकर अपने परिवार की परवरिश में सहयोग करते थे। जब उनकी उम्र 20 वर्ष की हुई तो उन्होंने छोटानागपुर के महाराज के यहां नौकरी कर ली. जल्द ही उन्होंने राजा के दरबार में एक अच्छी मुक़ाम हासिल कर लिया. बाद में बड़कागढ़ जगन्नाथपुर के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव ने उनको अपने यहां दीवान के पद पर रख लिया़ शेख भिखारी के जिम्मे में बड़कागढ़ की फौज का भार दे दिया गया.
1856 ई में जब अंग्रेज़ों ने राजा महाराजाओं पर चढ़ाई करने का मनसूबा बनाया तो इसका अंदाजा हिंदुस्तान के राजा-महाराजाओं को होने लगा था. जब इसकी भनक ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को मिली तो उन्होंने अपने वजीर पांडे गनपतराय दीवान शेख भिखारी, टिकैत उमरांव सिंह से मशवरा किया, इन सभी ने अंग्रेज़ों के खिलाफ़ मोर्चा लेने की ठान ली और जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह से कई बार राब्ता किया. इसी बीच में शेख़ भिखारी ने बड़कागढ़ की फौज में रांची एवं चाईबासा के नौजवानों को भरती करना शुरू कर दिया.
अचानक अंग्रेज़ों ने 1857 में चढ़ाई कर दी.विरोध में रामगढ़ के हिंदुस्तानी रेजिमेंट ने अपने अंग्रेज़ अफ़सर को मार डाला. नादिर अली हवलदार और रामविजय सिपाही ने रामगढ़ रेजिमेंट छोड़ दिया और जगन्नाथपुर में शेख भिखारी की फ़ौज में शामिल हो गये. इस तरह जंग ए आज़ादी की आग छोटानागपुर में फैल गयी. रांची, चाईबासा, संथाल परगना के ज़िलों से अंग्रेज़ भाग खड़े हुए. इसी बीच अंग्रेज़ों की फ़ौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गयी और चुट्टूपालू के पहाड़ के रास्ते से रांची के पलटुवार चढ़ने की कोशिश करने लगे.
उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुट्टूपालू पहाड़ी पहुंच गये और अंग्रेज़ों का रास्ता रोक दिया. शेख भिखारी ने चुट्टूपालू की घाटी पार करनेवाला पुल तोड़वा दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम करवा दिया. शेख़ भिखारी की फ़ौज ने अंग्रेज़ों पर गोलियों की बौछार कर अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिये. यह लड़ाई कई दिनों तक चली. शेख़ भिखारी की फ़ौज के पास गोलियां ख़त्म होने लगी तो शेख़ भिखारी ने अपनी फ़ौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया. इससे अंग्रेज़ फ़ौजी कुचलकर मरने लगे. यह देखकर जनरल मैकडोन ने मुकामी लोगों को मिलाकर चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढ़ने के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी ली. फिर उस खुफिया रास्ते से चुट्टूघाटी पहाड़ पर चढ़ गये. इसकी खबर शेख़ भिखारी और उनकी फ़ौज को नहीं हो सकी. अंग्रेज़ों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को 6 जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ़्तार कर लिया और 7 जनवरी 1858 को उसी जगह चुट्टूघाटी पर फ़ौजी अदालत लगाकर मैकडोना ने शेख़ भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया.
8 जनवरी 1858 को आजादी के आलमे बदर शेख़ भिखारी और टिकैत उमराव सिंह को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गयी. वह पेड़ आज भी सलामत है. यह पेड़ आज भी हमें उनकी याद दिलाता है और हर साल कुछ सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लोग यहां पहुंच कर उन्हें श्रधांजली अर्पित करते हैं, लेकिन सरकारी स्तर पर उन्हें याद नहीं किया जाता है।शहीद शेख भिखारी रांची से लगभग 25 किलोमीटर दूर खद्या नामक गांव के रहने वाले थे। यह क़स्बा शहीद शेख भिखारी के वारिसों का है। इसके बावजूद यह कस्बा और उनके वारिस आज भी पिछड़ेपन के शिकार हैं। शहीद दिवस के अवसर पर इस कस्बे और रांची में विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा छोटे छोटे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग है कि शहीद शेख भिखारी के नाम पर राज्य में ऐसी यादगार स्थापित की जाएगी, जिससे नई पीढ़ी लाभ उठा सके और देश की खातिर उनके दिए कुरबानी को याद रखा जा सके।
बुधु भगत पूरा नाम बुधु भगत जन्म 17 फ़रवरी, 1792 ई. जन्म भूमि राँची, झारखण्ड नागरिकता भारतीय प्रसिद्धि क्रांतिकारी आंदोलन लरका आंदोलन अन्य जानकारी बुधु भगत ने अपने दस्ते को गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया था। उन्हें पकड़ने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने एक हज़ार रुपये इनाम की घोषणा कर दी थी। बुधु भगत अथवा 'बुदु भगत' (अंग्रेज़ी: Budhu Bhagat, जन्म- 17 फ़रवरी, 1792 ई., राँची, झारखण्ड; मृत्यु- 14 फ़रवरी, 1832 ई.) भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध क्रांतिकारी के रूप में जाने जाते हैं। इनकी लड़ाई अंग्रेज़ों, ज़मींदारों तथा साहूकारों द्वारा किए जा रहे अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध थी। जन्म बुधु भगत का जन्म आज के झारखण्ड राज्य में राँची ज़िले के सिलागाई नामक ग्राम में 17 फ़रवरी, सन 1792 ई. को हुआ था। कहा जाता है कि उन्हें दैवीय शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके प्रतीकस्वरूप वे एक कुल्हाड़ी सदा अपने साथ रखते थे।[1] बाल्यकाल आमतौर पर 1857 को ही स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम समर माना जाता है। लेकिन इससे इससे पूर्व ही वीर बुधु भगत ने न सिर्फ़ क्रान्ति का शंखनाद किया था, बल्कि अपने साहस व नेतृत्व क्षमता से 1832 ई. में "लरका विद्रोह" नामक ऐतिहासिक आन्दोलन का सूत्रपात्र भी किया।[2] छोटा नागपुर के आदिवासी इलाकों में अंग्रेज़ हुकूमत के दौरान बर्बरता चरम पर थी। मुण्डाओं ने ज़मींदारों, साहूकारों के विरुद्ध पहले से ही भीषण विद्रोह छेड़ रखा था। उरांवों ने भी बागी तेवर अपना लिये। बुधु भगत बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेज़ी सेना की क्रूरता देखते आये थे। उन्होंने देखा था कि किस तरह तैयार फ़सल ज़मींदार जबरदस्ती उठा ले जाते थे। ग़रीब गांव वालों के घर कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाता था। बालक बुधु भगत सिलागाई की कोयल नदी के किनारे घंटों बैठकर अंग्रेज़ों और जमींदारों को भगाने के बारे में सोचते रहते थे।
बुधु भगत सन् 1831-1832 के झारखण्ड विद्रोह सिली गांव के नायक थे l बुधु भगत का जन्म आज के झारखण्ड राज्य में राँची ज़िले के सिलागाई नामक ग्राम में 17 फ़रवरी, सन 1792 ई. को हुआ था। कहा जाता है कि उन्हें दैवीय शक्तियाँ प्राप्त थीं, जिसके प्रतीकस्वरूप वे एक कुल्हाड़ी सदा अपने साथ रखते थे।बाल्यकाल आमतौर पर 1857 को ही स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम समर माना जाता है। लेकिन इससे इससे पूर्व ही वीर बुधु भगत ने न सिर्फ़ क्रान्ति का शंखनाद किया था, बल्कि अपने साहस व नेतृत्व क्षमता से 1832 ई. में "लरका विद्रोह" नामक ऐतिहासिक आन्दोलन का सूत्रपात्र भी किया। छोटा नागपुर के आदिवासी इलाकों में अंग्रेज़ हुकूमत के दौरान बर्बरता चरम पर थी। मुण्डाओं ने ज़मींदारों, साहूकारों के विरुद्ध पहले से ही भीषण विद्रोह छेड़ रखा था। उरांवों ने भी बागी तेवर अपना लिये। बुधु भगत बचपन से ही जमींदारों और अंग्रेज़ी सेना की क्रूरता देखते आये थे। उन्होंने देखा था कि किस तरह तैयार फ़सल ज़मींदार जबरदस्ती उठा ले जाते थे। ग़रीब गांव वालों के घर कई-कई दिनों तक चूल्हा नहीं जल पाता था। बालक बुधु भगत सिलागाई की कोयल नदी के किनारे घंटों बैठकर अंग्रेज़ों और जमींदारों को भगाने के बारे में सोचते रहते थे l इनके तलवार और धनुष-बाण चलाने में पारंगत होने के कारण लोगों ने बुधु को देवदूत समझ लिया l कैप्टन इंपे द्वारा बंदी बनाए गए सैकड़ों ग्रामीणों को विद्रोहियों ने लड़कर मुक्त करा लिया जिसका नेतृत्व बुधु ने किया । अपने दस्ते को बुधु ने गुरिल्ला युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया। घने जंगलों और दुर्गम पहाड़ियों का फायदा उठाकर कई बार अंग्रेज़ी सेना को परास्त किया। बुधु को पकड़ने के लिए अंग्रेज़ सरकार ने एक हज़ार रुपये इनाम की घोषणा कर दी थी। हज़ारों लोगों के हथियारबंद विद्रोह से अंग्रेज़ सरकार और ज़मींदार कांप उठे। बुधु भगत को पकड़ने का काम कैप्टन इंपे को सौंपा गया l
14 फ़रवरी, सन 1832 ई. को बुधु और उनके साथियों को कैप्टन इंपे ने घेर लिया l कैप्टन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। बुधु भगत तथा परिवार के सदस्यों एवं अपने हजारो अनुयायीयों के साथ शहिद हो गए।

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