चापलूसों की दुनियां में,
ईमान धूल चाटता है |
जी हजूरी जिसने की ,
वो आकाश नापता है |
कलयुग की है ये माया,
इंसान रोज रंग बदलता है |
जहां देखा स्वार्थ अपना ,
वहीं पर डेरा जमता है |
बदल जाती शारीरिक भाषा,
मुख से न बोलना पड़ता है |
अपमान करता अपनों का,
जब उसे अवसर मिलता है |
अपनी वाहवाही के चक्कर में,
वो नीचे से नीचे धसता है |
अपने संस्कारों के विपरित,
वो अपनी चाले चलता है |
सामने जब आती है सच्चाई,
लोगों की नज़रों से गिरता है |
करले फिर कितनी भी कोशिश,
वक्त फिर कहाँ माफ करता है |
©
डाॕ.ममता सूद,कुरुक्षेत्र,
(हरियाणा)
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