Monday, July 11, 2022

गुरुपूर्णिमा

गुरुपूर्णिमा उत्सव
         अपने कार्य में गुरु पूर्णिमा एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और पवित्र अवसर है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। व्यास महर्षि ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान आदर्शों को चित्रित करते हुए, विचार तथा आचारों का समन्वय करते हुए, न केवल भारतवर्ष का, अपितु सम्पूर्ण मानव जाति का मार्गदर्शन किया। इसलिए भगवान वेद व्यास जगत् के गुरु हैं। इसीलिए कहा है " व्यासोनारायणं स्वयम् " । इसी दृष्टि से गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है। जिसे हमने श्रद्धापूर्वक मार्गदर्शक या गुरु माना है, उसकी हम इस दिन पूजा करते हैं, उसके सामने अपनी भेंट चढ़ाते हैं, उसे आत्मनिवेदन करते हैं और आगामी वर्ष के लिए आशीर्वाद मांगते हुए, हम अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार यह महान् उत्सव अपने आत्मनिवेदन का पवित्र अवसर है। 
व्यक्ति-निष्ठा नहीं, तत्व-निष्ठा 
   हम सब लोग जानते हैं कि हमारे संघकार्य में हमने किसी व्यक्तिविशेष को गुरु नहीं माना है। शास्त्रों में गुरु की बड़ी महत्ता कही गई है। गुरु को ईश्वर से भी श्रेष्ठ माना गया है। हमारे ऋषियों ने गुरु के गुण, विस्तार के साथ बखाने हैं अब इतने गुण किसी एक व्यक्ति में पाना कठिन है। किसी व्यक्ति में हम कुछ श्रेष्ठ बातें देख लेते हैं, तो हम उसका आदर करने लगते हैं। परन्तु थोड़े ही दिनों में जब उसके दोष ध्यान में आ जाते हैं तब हमारे मन में अनादर उत्पन्न होता है। कदाचित हम उसका तिरस्कार भी करने लगते हैं। यह सब घोर अनुचित है। क्योंकि गुरु का त्याग अपने यहाँ बड़ा पाप माना गया है। परन्तु यह सब हो सकता है, क्योंकि मनुष्यमात्र स्खलनशील है। गायत्री मंत्र के निर्माता विश्वामित्र ऋषि बड़े उग्र तपस्वी और महान् थे। परन्तु उनका भी तो आखिर पतन हुआ। अतः किसी भी मनुष्य को ऐसा अहंकार नहीं करना चाहिए, कि मैं निर्दोष हूँ और परिपूर्ण हूँ। 
    मनुष्य जीवन की कली खिलकर बड़ा सुन्दर और सुगंधी पुष्प विकसित हो जाता है, परन्तु पता नहीं कैसे और कहाँ से उसमें कीड़ा लग जाता है। अतः जब तक जीवन पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक उसका मूल्यांकन नहीं किया जाता। 
     इसलिए संघ कार्य में उचित समझा गया, कि हम भावना, चिन्ह, लक्षण या प्रतीक को गुरु मानें। हमने संघ कार्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के पुनर्निर्माण का संकल्प किया है। समाज के सब व्यक्तियों के गुणों तथा शक्तियों को हमें एकत्र करना है। इस ध्येय की सतत् प्रेरणा देने वाले गुरु की हमें आवश्यकता थी। 

तेज, ज्ञान एवं त्याग का प्रतीक 
   हमारे समाज की सांस्कृतिक जीवन धारा में यज्ञ का बड़ा महत्त्व रहा है। ' यज्ञ ' शब्द के अनेक अर्थ हैं। व्यक्तिगत जीवन को समर्पित करते हुए समष्टि-जीवन को परिपुष्टि करने के प्रयास को ही यज्ञ कहा गया है। सद्गुण रूप अग्नि में अयोग्य, अनिष्ट, अहितकर बातों का होम करना ही यज्ञ है। श्रद्धामय, त्यागमय, सेवामय, तपस्यामय जीवन व्यतीत करना ही यज्ञ है। यज्ञ की अधिष्ठात्री देवता अग्नि है। अग्नि का प्रतीक है ज्वाला और ज्वालाओं का प्रतिरूप है - हमारा परम पवित्र भगवाध्वज।       
      हम श्रद्धा के उपासक हैं, अंध-विश्वास के नहीं। हम ज्ञान के उपासक हैं, अज्ञान के नहीं। जीवन के हर क्षेत्र में बिल्कुल विशुद्ध- ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना ही हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। अज्ञान के नाश के लिए ही हमारे ऋषि-मुनियों ने उग्र तपश्चर्या की है। अज्ञान का प्रतीक है अंधकार, और ज्ञान का प्रतीक है सूर्य। पुराणों में कहा गया है, कि सूर्यनारायण रथ में बैठकर आते हैं। उनके रथ में सात घोड़े लगे हैं और उनके आगमन के बहुत पहले उनके रथ की सुनहरी गैरिक ध्वजा फड़कती हुई दिखाई देती है। इसी ध्वज को हमने हमारे समाज का परम आदरणीय प्रतीक माना है। वह भगवान का ध्वज है। इसीलिये उसे हम भगवद् - ध्वज कहते हैं। उसी से आगे चलकर शब्द बना है -   " भगवाध्वज " 
वही हमारा गुरु है।                                                                                                                          हमारे यहाँ समाज की सुव्यवस्था के लिए चार आश्रम आवश्यक माने गये हैं। पहले आश्रम में विद्या प्राप्त करना, दूसरे में सामाजिक कर्तव्यों को निभाना, तीसरे में समाज सेवा करना और चौथे में संन्यास लेकर मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करना। यह चतुर्थ आश्रम सर्वश्रेष्ठ है। उसमें सर्वसंग परित्याग आवश्यक है। उसमें शुद्ध, पवित्र एवं व्रतस्थ जीवन बिताना पड़ता है। संन्यासी यह ध्यान में रखें, कि मैं रात-दिन त्यागरूप अग्नि की ज्वालाओं में खड़ा हूँ। कदाचित इसीलिये हमारे यहाँ के संन्यासी भगवे वस्त्र धारण करते हैं। इस प्रकार वंदनीय संन्यास आश्रम ने जिसे मान्यता दी है, सूर्य भगवान का जो आगमन चिन्ह है, अग्निशिखाओं की जो प्रतिकृति है, ऐसा हमारा भगवाध्वज, हमारा प्रेरणा स्थान है। उसी के द्वारा हमारे राष्ट्र की आत्मा प्रकट होती है। हमारे देश का इतिहास इसी तथ्य को सिद्ध करता है। इन्हीं सब कारणों से संघ ने इस परम पवित्र तेजोमय, भगवाध्वज को गुरु स्थान पर रखा है, किसी व्यक्ति को नहीं।
[7/11, 11:04 PM] ANAM J&K: परम पवित्र भगवा ध्वज 
* हम प्रतिदिन संघस्थान पर शाखा में ध्वज प्रणाम करते हैं।
* राजा रघु, भगवान राम, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी ने इस ध्वज के रक्षण के लिए प्राणोत्सर्ग किया।
* भगवान राम, माता सीता ने इसी रंग के वस्त्र को धारण किया। उनका पूरा जीवन संघर्ष का रहा। 
* भगवान राम के लिए देवराज इन्द्र द्वारा भेजे गए रथ पर यही ध्वज। 
* महाभारत काल में अर्जुन के रथ पर भगवा ध्वज ही था। इस कपिध्वज की रक्षा स्वयं हनुमानजी कर रहे थे। युद्ध के पश्चात ध्वज उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया। 
* उज्जैन फिर सुना दे, विक्रम की वह कहानी। उनका भी ये भगवा ध्वज ही था।
* शिवाजी ने 17 वर्ष की आयु में तोरण के किले को जीतकर विजय यात्रा प्रारंभ की। कोंडाणा के किले पर भगवा ध्वज फ़हराने के लिए तानाजी मालसुरे का बलिदान।
* महाराणा प्रताप ने चावंड को अंतिम राजधानी बनाई थी - अभी देश आजाद है, गुलाम नहीं है। यही ध्वज वहां फहराया। मेवाड़ की रक्षा की।
* वीर छत्रसाल शिवाजी महाराज के पास गए। शिवाजी ने उनका मनोबल बढ़ाया और बुंदेलखंड की रक्षा छत्रसाल ने की।
* मीराबाई ने यही बाना पहना।
* रानी लक्ष्मीबाई ने इसी ध्वज को प्रतीक माना।
भक्ति आन्दोलन। सन्यासियों का यही बाना।
* स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व का परचम विश्व धर्म सम्मेलन में फहराया।
* झंडा कमेटी ने भगवा ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज की मान्यता देने का प्रस्ताव रखा। उसमें सात लोग थे। डॉ. हार्डीकर, पट्टाभि सीतारमैया उसमें थे। 
* 1906 में एक ध्वज तैयार हुआ - तीन रंग का। 
1921 में तीन रंग का ध्वज, बीच में चरखा।
* हम राष्ट्रीय ध्वज का पूर्ण सम्मान करते हैं। 
पहले हम राष्ट्रीय ध्वज को 26 जनवरी व 15 अगस्त के अवसर पर ही फहरा सकते थे। आज तिरंगे को स्थायी रूप से अपने घर की छत पर भी फहरा सकते हैं।
* भगवान श्रीराम ने गुरु विश्वामित्र और वशिष्ठ को अपना गुरु बनाया। भगवान श्री कृष्ण को संदीपन ऋषि को अपना गुरु बनाया। 
पूजनीय डॉक्टरजी ने संघ की स्थापना की। परम पवित्र भगवा ध्वज को हमने गुरु के रूप में स्वीकार किया।
* ध्वज त्याग का प्रतीक है।
ध्वज ज्ञान का प्रतीक है।
ध्वज विजय और बलिदान का प्रतीक है।
* केसरिया बाना पहनकर जब सेना युद्ध के मैदान में आते थे, तो शत्रु सेना के पैर उखड़ जाते थे। 
* ध्वज बलिदान का भी प्रतीक है।
* सूर्यदेव प्रातः उगते हुए बालसूर्य के रूप में इसी रंग की किरणें बिखेरते हैं। सूर्य सबको समान रूप से प्रकाश देते हैं। लौकिकता और आध्यात्मिकता - दोनों की उन्नति का प्रतीक है। 
गगन में लहरता है भगवा हमारा


Gurupurnima festival
          Guru Purnima is a very important and sacred occasion in our work. It is also called Vyasa Purnima. Vyasa Maharishi guided not only India, but the entire human race, while delineating the best qualities of our nation's life, portraying their great ideals, coordinating thoughts and ethics. Therefore Lord Veda Vyasa is the Guru of the world. That is why it is said "Vyasonarayanam swayam". For this reason, Guru Purnima is also called Vyas Purnima. On this day, we worship the one whom we have reverently considered to be the guide or guru, make our offerings to him, pray to him and seek blessings for the coming year, we pave the way for our progress. In this way, this great festival is a holy occasion for one's self-request.
 not individuality, allegiance
    We all know that in our Sangh work, we have not considered any particular person as our Guru. Great importance of Guru has been said in the scriptures. Guru is considered superior to God. Our sages have explained with great detail the qualities of a guru, now it is difficult to find so many qualities in a single person. When we see some great things in a person, then we start respecting him. But within a few days, when his faults are noticed, then disrespect arises in our mind. Maybe we even start to despise him. This is all grossly unfair. Because renunciation of Guru is considered a big sin here. But all this can happen, because man is only ejaculatory. Rishi Vishwamitra, the creator of Gayatri Mantra, was a very fierce ascetic and great. But he too eventually fell. Therefore, no man should have such arrogance that I am innocent and perfect.
     The bud of human life blossoms into a very beautiful and fragrant flower, but I do not know how and from where the worm gets into it. So until life is complete, it is not valued.
      Therefore, it was considered appropriate in the Sangh work, that we should consider the feeling, sign, symptom or symbol as the guru. We have resolved to rebuild the entire nation through Sangh work. We have to collect the qualities and strengths of all the people of the society. We needed a guru who would inspire us continuously for this goal.

 Brightness, symbol of wisdom and sacrifice
    Yagya has been of great importance in the cultural life stream of our society. The word 'Yajna' has many meanings. Dedicating the individual life, the effort to confirm the collective life is called Yagya. To do the home of unworthy, bad and harmful things in the fire of virtue is Yagya. To lead a life devoted to devotion, sacrifice, service, and austerity is Yagya. The presiding deity of Yagya is Agni. The symbol of fire is flame and the image of flames is our most sacred Bhagwadhwaj.
       We are worshipers of faith, not of superstition. We are worshipers of knowledge, not of ignorance. The establishment of absolutely pure-knowledge in every sphere of life has been the specialty of our culture. For the destruction of ignorance, our sages have done fierce penance. The symbol of ignorance is darkness, and the symbol of knowledge is the sun. It is said in the Puranas that Suryanarayana comes sitting in a chariot. There are seven horses in his chariot and the golden Garrick flag of his chariot is seen fluttering long before his arrival. We have considered this flag as the most respected symbol of our society. It is the flag of God. That is why we call it Bhagavad-Dhwaja. After that the word is formed - "Bhagwadhwaj".
 He is our Guru. Four ashrams have been considered necessary for the good order of the society. To acquire knowledge in the first ashram, perform social duties in the second, do social service in the third and try to attain salvation by taking sannyas in the fourth. This fourth ashram is the best. It requires total abandonment. One has to lead a pure, pious and fasting life in it. Keep in mind the sannyasin that night and day I am standing in the flames of sacrifice in the form of fire. Maybe that's why our sannyasins wear saffron clothes. In this way, which is recognized by the venerable Sanyas Ashram, which is the arrival sign of the Sun God, which is the replica of the fire-shikhas, such is our saffron flag, our place of inspiration. Through him the soul of our nation manifests. The history of our country proves this fact. For all these reasons, the Sangh has kept this supremely holy effulgence, the Bhagwadhwaj at the Guru's place and not any person.
 [7/11, 11:04 PM] ANAM J&K: The Most Holy Saffron Flag
 * We do flag salutation every day at the branch at the Sanghasthan.
 * King Raghu, Lord Rama, Chandragupta Vikramaditya, Maharana Pratap, Chhatrapati Shivaji sacrificed their lives to protect this flag.
 * Lord Rama, Mother Sita wore clothes of this color. His whole life was one of struggle.
 * This flag on the chariot sent by Devraj Indra for Lord Rama.
 * In the Mahabharata period, there was only a saffron flag on Arjuna's chariot. Hanumanji himself was protecting this cupidhwaj. After the war, the chariot was burnt to ashes as soon as the flag came down.
 * Ujjain then tell that story of Vikram. He too had this saffron flag.
 Shivaji started his victory journey at the age of 17 by conquering the fort of Torana. Sacrifice of Tanaji Malsure for hoisting the saffron flag at Kondana Fort.
 * Maharana Pratap made Chavand the last capital - the country is free now, not a slave. This flag was hoisted there. Protected Mewar.
 * Veer Chhatrasal went to Shivaji Maharaj. Shivaji boosted their morale and Chhatrasal protected Bundelkhand.
 * Mirabai wore this veil.
 * Rani Laxmibai considered this flag as a symbol.
 Bhakti Movement. This is the bane of sannyasis.
 * Swami Vivekananda hoisted the flag of Hindutva in the World Religions Conference.
 * The flag committee proposed to recognize the saffron flag as the national flag. There were seven people in it. Dr. Hardikar, Pattabhi Sitaramayya were in it.
 * In 1906 a flag was prepared - of three colors.
 Three-coloured flag in 1921, spinning wheel in the middle.
 * We have full respect for the national flag.
 Earlier we could hoist the national flag only on 26 January and 15 August. Today the tricolor can also be permanently hoisted on the roof of your house.
 * Lord Shri Ram made Guru Vishwamitra and Vashistha his Guru. Lord Shri Krishna made Sandeepan Rishi his Guru.
 Revered Doctorji founded the Sangh. We accepted the most sacred saffron flag as our Guru.
 * The flag is a symbol of sacrifice.
 The flag is a symbol of wisdom.
 The flag is a symbol of victory and sacrifice.
 When the army used to come to the battlefield wearing saffron garb, the feet of the enemy army would be uprooted.
 The flag is also a symbol of sacrifice.
 * Suryadev scatters rays of this color in the form of a rising child in the morning. Sun gives light to all equally. Symbolizes the advancement of both cosmic and spirituality.
 Our saffron is waving in the sky.

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