Monday, October 30, 2023

shoony se ek shatak banate, ank kee man bhaavana. bhaaratee kee jay - vijay ho, le hrday mein prerana. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana.




 युगाब्द ५९२५


शके १९४५

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

नागपूर महानगर श्री विजयादशमी उत्सव वैयक्तिक गीत - शून्य से एक शतक बनते, अंक की मन भावना। भारती की जय - विजय हो, ले हृदय में प्रेरणा ॥ कर रहे हम साधना, मातृभू आराधना । दैव ने भी राम प्रभु हित, लक्ष्य था ऐसा विचारा, कंटकों के मार्ग चलकर, राम ने रावण संघारा, ताकि निष्कंटक रहे हर देव ऋषि की साधना ॥1 ॥ कर रहे हम साधना, मातृभू आराधना । ध्येय हित ही एक ऋषि ने देह को दीपक बनाया, और तिल-तिल जल स्वयं ने, कोटि दीपों को जलाया, ध्येय पथ पर चल पड़े, ले, उर विजय की कामना ॥2॥ कर रहे हम साधना, मातृभू आराधना । विजीगिषा का भाव लेकर, देश में स्वातंत्र्य आया, बनें समरस राष्ट्र भारत, बोध यह दायित्व लाया, छल कपट और भेद से था, राष्ट्र जन को तारना ॥3 ॥ कर रहे हम साधना, मातृभू आराधना । धर्म संस्कृति है सनातन, रखें जल-वायु सहावन, पंक्ति में पीछे खड़े का, उन्नयन हो नित्य भावन, राष्ट्र का उत्थान साधन, विश्व मंगल कामना ॥4॥ कर रहे हम साधना, मातृभू आराधना ।



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vaiyaktik geet -

shoony se ek shatak banate, ank kee man bhaavana. bhaaratee kee jay - vijay ho, le hrday mein prerana. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana.

daiv ne bhee raam prabhu hit, lakshy tha aisa vichaara, kantakon ke maarg chalakar, raam ne raavan sanghaara, taaki nishkantak rahe har dev rshi kee saadhana .1. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana. dhyey hit hee ek rshi ne deh ko deepak banaaya, aur til-til jal svayan ne, koti deepon ko jalaaya, dhyey path par chal pade, le, ur vijay kee kaamana .2. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana. vijeegisha ka bhaav lekar, desh mein svaatantry aaya, banen samaras raashtr bhaarat, bodh yah daayitv laaya, chhal kapat aur bhed se tha, raashtr jan ko taarana .3. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana. dharm sanskrti hai sanaatan, rakhen jal-vaayu sahaavan, pankti mein peechhe khade ka, unnayan ho nity bhaavan, raashtr ka utthaan saadhan, vishv mangal kaamana .4. kar rahe ham saadhana, maatrbhoo aaraadhana.








English

Yugabd 5925

Yugabd 5925

shake 1945

Rashtriya Swayamsevak Sangh


Nagpur Metropolitan Shri Vijayadashami Utsav Personal song - Zero becomes a century, the feeling of the score. May Bharati be victorious, take inspiration in your heart. We are doing sadhana, worshiping our mother. The God also thought that Ram Prabhu's welfare was his goal, by following the path of thorns, Ram defeated Ravana, so that the sadhana of every Dev Rishi remains free from fear. We are doing sadhana, worshiping our mother. Only for the sake of the goal, a sage turned his body into a lamp, and he himself lit every drop of water, lit millions of lamps, started walking on the path of goal, wish for your victory ॥2॥ We are doing sadhana, worshiping our mother. Independence came to the country with the spirit of Vijigisha, India should become a harmonious nation, it brought the realization of the responsibility, it was through deceit and secrecy to save the nation ॥3 ॥ We are doing sadhana, worshiping our mother. Religion and culture are eternal, water and air should be kept in harmony, standing at the back in the queue should be a daily sentiment, Means for the upliftment of the nation, wishing well for the world ॥4॥
We are doing sadhana, worshiping our mother.

Saturday, October 7, 2023

रामायण की कहानी हमारी जुबानी



 वाल्मीकि रामायण (भाग 6)


उन तीनों ने वह रात्रि ताटका वन में व्यतीत की।


अगले दिन प्रातःकाल महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम से कहा, "महायशस्वी राजकुमार! ताटका वध के कारण मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। आज मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ तुम्हें सब प्रकार के अस्त्र देने वाला हूँ। इनके प्रभाव से तुम सदा ही अपने शत्रुओं पर विजय पाओगे, चाहे वे देवता, असुर, गन्धर्व या नाग ही क्यों न हों।"


"आज मैं तुमको दिव्य एवं महान दण्डचक्र, धर्मचक्र, कालचक्र, विष्णुचक्र तथा अति भयंकर ऐन्द्रचक्र दूंगा। मैं तुम्हें इन्द्र का वज्रास्त्र, शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल व ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नाम अस्त्र भी दूंगा। साथ ही तुम्हें ऐषीकास्त्र व ब्रह्मास्त्र भी प्रदान करूंगा। इसके अलावा मोदकी व शिखरी नामक दो उज्ज्वल गदाएं तथा धर्मपाश, कलपाश व वरुणपाश नामक उत्तम अस्त्र भी मैं दूंगा।"


"अग्नि के प्रिय आग्नेयास्त्र का नाम शिखरास्त्र है। वह भी मैं तुम्हें देने वाला हूं। इसके साथ ही अस्त्रों में प्रधान वायव्यास्त्र भी मैं तुम्हें दे रहा हूं। सूखी व गीली अशनी तथा पिनाक एवं नारायणास्त्र, हयशिरा अस्त्र, क्रौञ्च अस्त्र एवं दो शक्तियां भी तुम्हें मैं देता हूं। विद्याधारों का महान नन्दन अस्त्र तथा उत्तम खड्ग भी मैं तुम्हें अर्पित करता हूं। गन्धर्वों के प्रिय मानवास्त्र व सम्मोहनास्त्र, कामदेव का प्रिय मादन अस्त्र, पिशाचों का प्रिय मोहनास्त्र, तथा प्रस्वापन, प्रशमन तथा सौम्य अस्त्र भी मैं तुम्हें दे रहा हूं।"


"राक्षसों के वध में उपयोगी होने वाले कंकाल, घोर मूसल, कपाल तथा किंकिणी आदि सब अस्त्र भी मुझसे ग्रहण करो। तापस, महाबली सौमन, संवर्त, दुर्जय, मौसल, सत्य व मायामय उत्तम अस्त्र भी मैं तुम्हें देता हूं। सूर्यदेव का तेजोप्रभास्त्र भी मुझसे लो। यह शत्रु के तेज को नष्ट कर देता है। सोमदेव का शिशिरास्त्र, विश्वकर्मा का दारूणास्त्र, भगदेवता का भयंकर अस्त्र व मनु का शीतेषु अस्त्र भी ग्रहण करो।"


ऐसा कहकर मुनि विश्वामित्र पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए और प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने श्रीरामचन्द्र जी को उन सब अस्त्रों का उपदेश दिया। इसके बाद श्रीराम ने प्रसन्नाचित्त होकर विश्वामित्र जी को प्रणाम किया व मुनि ने उन्हें प्रत्येक अस्त्र को चलाने की विधि बताई।


फिर विश्वामित्र जी बोले, "रघुकुलनन्दन श्रीराम! अब तुम इन अस्त्रों को भी ग्रहण करो - सत्यवान, सत्यकीर्ति, धृष्ट, रभस, प्रतिहारतर, प्रांगमुख, अवांगमुख, लक्ष्य, अलक्ष्य, दृढ़नाभ, सुनाभ, दशाक्ष, शतवक्त्र, दशशीर्ष, शतोदर, पद्मनाभ, महानाभ, दुन्दुनाभ, स्वनाभ, ज्योतिष, शकुन, नैरास्य, विमल, यौगन्धर, विनिद्र, शुचिबाहु, महाबाहु, निष्किल, विरुच, सर्चिमाली, धृतिमाली, वृत्तिमान्, रुचिर, पित्र्य, सौमनस, विधूत, मकर, परवीर, रति, धन, धान्य, कामरूप, कामरुचि, मोह, आवरण, जृम्भक, सर्पनाथ, पन्थान और वरुण।"


श्रीराम ने विनम्रतापूर्वक उन सब अस्त्रों को भी ग्रहण किया।


अब वे तीनों आगे की यात्रा पर बढ़े। चलते-चलते ही श्रीराम ने विश्वामित्र जी से पूछा, "प्रभु! सामने वाले पर्वत के पास जो घने वृक्षों से भरा स्थान दिखाई देता है, वह क्या है? मृगों के झुण्ड के कारण वह स्थान अत्यंत मनोहर प्रतीत हो रहा है। अतः उसके बारे में जानने की मेरी इच्छा है।"


यह सुनकर विश्वामित्र जी ने कहा, "भगवान विष्णु ने वहां बहुत बड़ी तपस्या की थी। वामन अवतार धारण करने से पहले यही उनका आश्रम था। महातपस्वी विष्णु को यहां सिद्धि प्राप्त हुई थी, इसलिए यह सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ।"


"यहां अपनी तपस्या पूर्ण करने के उपरांत महर्षि कश्यप व उनकी पत्नी अदिति की विनती स्वीकार करके उन्होंने उनके पुत्र वामन के रूप में अवतार लिया व यज्ञ में विरोचनकुमार राजा बलि से तीन पग में तीन लोकों की भूमि वापस लेकर देवताओं की सहायता की।"


"उन्हीं भगवान वामन में भक्ति होने के कारण मैं इसी सिद्धाश्रम में निवास करता हूं और यहीं वे राक्षस आकर मेरे यज्ञ में विघ्न डालते हैं। अब हम वहां पहुंचने वाले हैं। यह आश्रम जैसा मेरा है, वैसा ही तुम्हारा भी है। यहीं रहकर तुम्हें उन दुराचारी राक्षसों का वध करना है।"


ऐसा कहकर बहुत प्रेम से मुनि ने उन दोनों भाइयों के हाथ पकड़ लिए और उन्हें अपने साथ लेकर आश्रम में प्रवेश किया।


अगले दिन प्रातःकाल दोनों भाइयों ने स्नानादि से शुद्ध होकर गायत्री मन्त्र का जाप किया व यज्ञ की दीक्षा लेकर अग्निहोत्र में बैठे महर्षि विश्वामित्र की चरण वंदना की। इसके बाद श्रीराम ने कहा, “भगवन्! हम दोनों यह सुनना चाहते हैं कि वे दो निशाचर किस-किस समय आपके यज्ञ पर आक्रमण करते हैं, ताकि हम उचित समय पर यज्ञ की रक्षा के लिए सावधान रहें।”


श्रीराम की यह बात सुनकर आश्रम के सभी मुनि बड़े प्रसन्न हुए, किंतु विश्वामित्र जी कुछ भी नहीं बोले। आश्रम के एक अन्य मुनि ने दोनों भाइयों से कहा, “मुनिवर विश्वामित्र जी अब यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं। अतः अब वे मौन रहेंगे। आप दोनों सावधान रहकर अगले छः दिनों तक लगातार यज्ञ की रक्षा करते रहें।”


यह बात सुनकर दोनों भाई अगले छः दिन-रातों तक लगातार विश्वामित्र जी के पास खड़े रहकर यज्ञ की रक्षा में डटे रहे। छठे दिन जब यज्ञ पूर्ण होने का समय आया, तो श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “सुमित्रानन्दन! अब अपने चित्त को एकाग्र करके सावधान हो जाओ।”


तभी अचानक यज्ञ के उपाध्याय, पुरोहित व अन्य ऋत्विजों से घिरी यज्ञ-वेदी सहसा प्रज्ज्वलित हो उठी। वेदी का इस प्रकार अचानक भभक उठना राक्षसों के आगमन का सूचक था। उधर दूसरी ओर विश्वामित्र जी व अन्य ऋत्विजों ने अपनी यज्ञ-वेदी पर आहवन की अग्नि प्रज्वलित की और शास्त्रीय विधि के अनुसार वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ यज्ञ का कार्य आगे बढ़ा।


उसी समय आकाश में भीषण कोलाहल सुनाई दिया। मारीच व सुबाहु दोनों राक्षस अपने अनुचरों के साथ यज्ञ पर आक्रमण करने आ पहुँचे थे। उन्होंने वहाँ रक्त की धारा बहाना आरंभ कर दिया। उस रक्त-प्रवाह से यज्ञ-वेदी के आस-पास की भूमि भीग गई।


यह देखते ही श्रीराम ने भाई लक्ष्मण से कहा, “लक्ष्मण! वह देखो मांसभक्षी राक्षस आ पहुँचे हैं। मैं शीतेषु नामक मानवास्त्र से अभी इन कायरों को छिन्न-भिन्न कर दूँगा।”


ऐसा कहकर श्रीराम ने उस तेजस्वी मानवास्त्र का संधान किया। अत्यंत रोष में भरकर उन्होंने पूरी शक्ति से उसे मारीच पर चला दिया। वह बाण सीधा जाकर मारीच की छाती में लगा और उस गहरे आघात के कारण वह सौ योजन दूर समुद्र के जल में जा गिरा।



इसके तुरंत बाद ही रघुनन्दन श्रीराम ने अपने हाथों की फुर्ती दिखाई और आग्नेयास्त्र का संधान करके उसे सुबाहु की छाती पर चला दिया। उस अस्त्र की चोट लगते ही वह राक्षस मरकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर महायशस्वी रघुवीर ने वायव्यास्त्र का उपयोग कर अन्य सब निशाचरों का भी संहार कर डाला। सभी मुनियों को यह देखकर परम आनन्द हुआ।


सफलतापूर्वक यज्ञ संपन्न हो जाने पर महर्षि विश्वामित्र ने प्रसन्न होकर कहा, “हे महायशस्वी राम! तुम्हें पाकर मैं कृतार्थ हो गया। तुमने गुरु की आज्ञा का पूर्ण रूप से पालन किया है। इस सिद्धाश्रम का नाम तुमने सार्थक कर दिया।”


इसके बाद संध्योपासना करके दोनों भाइयों ने प्रसन्नतापूर्वक विश्राम किया।


अगले दिन प्रातः दोनों भाई पुनः विश्वामित्र जी के समक्ष पहुँचे और उनसे निवेदन किया, “मुनिवर! हम दोनों आपकी सेवा में उपस्थित हैं। कृपया आज्ञा दीजिए कि हम अब आपकी क्या सेवा करें?”


तब महर्षि बोले, “नरश्रेष्ठ! मिथिला के राजा जनक एक महान् धर्मयज्ञ आरंभ करने वाले हैं। उसमें तुम्हें भी हम सब लोगों के साथ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अद्भुत धनुष है, जिसे तुम्हें भी देखना चाहिए। मिथिलानरेश ने पहले कभी अपने किसी यज्ञ के फल के रूप में वह धनुष माँगा था, अतः सभी देवताओं ने भगवान् शंकर के साथ मिलकर वह धनुष उन्हें दिया है। राजा जनक के महल में वह धनुष किसी देवता की भांति प्रतिष्ठित है और अनेक प्रकार के धूप, दीप, अगर आदि सुगन्धित पदार्थों से उसकी पूजा होती है। वह धनुष इतना भारी है कि उसका कोई माप-तौल नहीं है।


वह अत्यंत प्रकाशमान व भयंकर है। मनुष्यों की तो बात ही क्या, देवता, गन्धर्व, असुर या राक्षस भी उसकी प्रत्यंचा नहीं चढ़ा पाते हैं। हमारे साथ यज्ञ में चलकर तुम मिथिलानरेश के उस धनुष को व उनके उस पवित्र यज्ञ को भी देख सकोगे।”


इसके बाद महर्षि विश्वामित्र ने वनदेवताओं से जाने की आज्ञा ली। उन्होंने कहा, “मैं अपना यज्ञ पूर्ण करके अब इस सिद्धाश्रम से जा रहा हूँ। गंगा के उत्तर तट पर होता हुआ मैं हिमालय की उपत्यका में जाऊँगा। आप सबका कल्याण हो।”


ऐसा कहकर श्रीराम व लक्ष्मण को साथ ले महर्षि विश्वामित्र ने उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। मुनिवर के साथ जाने वाले ब्रह्मवादी महर्षियों की सौ गाड़ियाँ भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं।

शेष अगले भाग मे...स्रोत: वाल्मीकि रामायण। बालकाण्ड।